SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नकरण्डावकाचार के समान ही किया जायगा तो उसको सम्यग्दर्शन नहीं कहा जा सकता। इन तीनों मृढताओं के सेवन से अलगमा अवनि कोजानिये. कारण सायदान नहीं रह सकता । यह अन्धकार को पताना है । अतएव यह वर्णन अत्यन्त प्रयोजनीभूत है। मतलब यह कि यदि शंकादिक अतिचार लगते हैं नो अंशमंग होनेसे सम्यग्दर्शनमें - न्याप्ति दोष है । इसीप्रकार प्रमादादिवश यदि उपगृहनादि या उपहणादि नहीं करता है तो गुणोंमें या गुणाश्रयों में रुचिकी कमी पाये जाने के कारण सम्यग्दर्शनमें अल्पता पाई जाती है। यह भी उसका अव्याप्ति दोष है । यदि सच्चे और मिथ्या दोनों ही में समान प्रकृति करता है सो अलक्ष्य में प्रवृत्ति रहने के कारण सम्यग्दर्शन अतिश्याप्ति दोषसे युक्त माना जायगा । ऐसी अवस्था में भी शुद्ध सम्यग्दर्शन नहीं माना जा सकता। इसीप्रकार यदि कोई सम्यग्दृष्टि गर्विष्ट होकर-अनन्तानुवन्धी मान कषाय के जो कि द्वेषरूप है, उदयके वश होकर सच्चे प्राप्त प्रामम उपोभूत आदिसे द्वेष करता है तो वहां सम्यग्दर्शनका असंभव दोष हैं । उस अवस्थामें सम्यदर्शन का रहना ही संभव नहीं है। इस अभिप्रायको दृष्टि में रखकर ही मालुम होता है श्री भगवान समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन का हरण कहते समयर उत्तरार्थमें तीन विशेषण-'त्रिमूढापोट' 'अष्टांग' और 'अस्मप' दिये है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। इनमें से 'अष्टांग' विशेपण द्वारा श्रव्याप्ति दोषका 'त्रिमूदा. पोड से अविव्याप्ति दोषका और 'अस्मय' विशेषण से असंभव दोषका वारस हो जाता है। फलतः अध्याप्ति दोष युक्त लक्षणकेही द्वारा बताया गया सम्यग्दर्शन का स्वरूप पर्याप्त-ठीक नहीं है इस बात को बताने के लिए और सम्यग्दर्शन की निरतिचारिता तथा निरतिचार सम्य. पच सहित जीवकी प्रवृत्ति किसतरह की हुथा करती है इस बातको अष्टांग विशेषणका वर्णन करके मताने के बाद अतिव्याप्ति के विषयभूत कुश्रागमादि का कथन करना क्रमानुसार अवसर प्राप्त है। यद्यपि अतिव्याप्ति की विषयभूत मूढताएं तीन वताई गई हैं परन्तु मालुम होता है कि सामान्यतया एक ही मूढना के ये उत्तम मध्यम जघन्य इसतरह तीन प्रकार हैं। जिसमें जीव तव की अमान्यता का कथन भी अन्तर्भूत हो जाय और तदनुसार प्रवृत्ति पाई जाय उसे उत्तम दर्जे की मूढता समझनी चाहिये। जीव तच्च को मानकर उसके स्वरूपका विपर्यास यदि अद्धान सवा आचरण में पाया जाय तो मध्यम दर्जेकी मूढता माननी चाहिये। यदि माचरण मिथ्या या असमीचीन है तो जपन्य दर्जेकी मूढता समझनी चाहिये । तीनोंसे उतम दर्जेकी मूहसाका परिज्ञान जिससे हो सके और उसके परित्यागसे अतिथ्याप्ति दोष रहित सम्बन्दर्शन सिद्ध हो सके इसके लिए प्रधानभूत आगममूहता का स्वरूप प्रथम बताना ही प्रऊरा कारिका का १-"प्रतीचा शभंजनम्" । अथवा-" तथातिवारम् करणालसत्वम् " "शंका कक्षा निर्विचिकित्सान्यरष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्रष्टेरतीचाराः। -कारिका नं०४।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy