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रस्मकरण्श्रावकाचार
११८ है। स्वयं ग्रन्थक ने भागे चलकर कारिका नं० ३० में शुद्ध सम्यग्दृष्टि के लिए इन तीनोंको ही प्रणाम और विनय करने का निषेध किया है परन्तु महापण्डित पाशाथरजी ने अनगार धर्मामृत में आगममूढतासे लोकमहता को मिल ही बताया है । श्रागममूहताको उन्होंने देवमूढता और पाखण्डिमूहता में अन्नभूत किया है । सो सत्य क्या है ? वास्तवमें आशाधरजीने मूहताओं के चार प्रकार बताये हैं । यदि उनके कथनानुसार चार भेद माने जाय तो मूहताके तीन भेद जो प्रसिद्ध है और यहांपर भी जैसा कि बताया गया है उसमें विरोध होता है । यदि उनका कथन अयुक्त माना जाय तो स्वामी अमृनचन्द्रने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ३ भी चार महताओंका हो । नामोल्लेख किया है, उसको भी अपुक्त कहना होगा।
उत्तर-ठीक है । परन्तु इन कथनोंमें परस्पर कोई विरोध नहीं है । सम्यक्त्व के विरोधी मल दोप २५ हैं। उनमें से ६ अनायतनका यहां निर्देश नहीं है। शंकादिक ८ मद और ३ महता इस तरह १६ का ही उल्लेख है । अत एव कदागमका देवमूढता और पाखण्डि मूडसा में अन्त
र्भाव करके लोक मूढता का वर्णन किया समझना चाहिये जिससे कि अनापतन सेवाका भी समावेश होसके, अमृतचन्द्राचायने लोक, शास्त्राभास, समयाभास और देवताभास इस तरह चारका उल्लेख किया है जिसमें तीन मूढता और एक अनायतन सेवाका संग्रह होजाता है।
अथवा कदागमकं दो प्रकार समझने चाहिये एक शास्त्रीय, दूसरा गतानुगतिकताके द्वारा प्रवर्तमान व्यवहार । पहलेका शेष दो मूढता ओं में अन्तर्भाव करना चहिये और दूसरे का लोकमूहता में।
यद्यपि कुछ ऐसी भी लोकमूढताएं हैं जिनका कि कदागम समर्थन करते हैं। परन्तु वास्तव में वे सब लोकमूदताएं ही हैं जिनकी कि प्रकृति अधानमूलक है। -रावल त्रिपुण्डाधिपति होनेके सिवाय अत्यन्त सुन्दर नरंश धा नकि राक्षस, हनूमान् कामदेव अत्यन्तसुन्दर महापुरुष थे नकि बन्दर, पवनंजग महान् विद्याधर राजा थे नकि वास्तविक वाघु, अञ्जना भी वानरी-पशु नहीं थी अत्यन्त सती साध्यी सुन्दरी महिला थी । इनका वास्तविक स्वरूप वंश चिन्ह श्रादि श्री रविषेणाचार्य कृत पद्म पुराणादि से जाना जा सकता है। परन्तु लोगोंने इन की क्रमसे साक्षात राघस, बन्दर, वायु, वानरी आदि ही मान रखा है। उसी तरह उनके चित्र मूर्ति प्रादि भी बनाते हैं । दशहराके दिन रावणका रात्रसरूप बनाकर जलाते हैं, सो अन्नानमूलक महा पाप क्रिया है | ध्यान रहे राक्षस भी व्यन्तर देव है, वे अत्यन्त सुन्दर मनुष्य जैसे आकारके वैक्रियिक शरीरक तथा अषिमा महिमा आदि ऋद्धियोंके धारक,
१–जनु न कथमेतम् यावता लोकदेवतापापण्डिभेदास्त्रिय मूढमनुश्र यते । तथा च स्वामिसूकानिआफ्गासागरेत्यादि । नैष दोषः कुरेष कुलिङ्गिन वा फदागमस्यान्तर्भावान् । अन्धः२-१-३ीका २-यो देवलिंगिसमयेपु तमोमयेधु, लोकेंगतानुगतिकप्ययथैकपात्थे। न ष्टि रज्यति न च प्रवरद्विचारः सोऽमूटिरह राजति रेवतीवत् ।। अध०अ०२-१०३ ३-लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तावधिना कर्वव्यम् भूवष्टित्वम ॥२६