SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ art-.:.....-mirmanceroin चलण्डश्रावकाचार अगर पारिवाज्यका फल सुरेन्द्रता यताया है। बात यह है कि आगममें निर्वाणदीक्षा धारण कर लनवाले मुमुक्षुकं लिये २७ पदोंका१ ग्राशय समझकर उनके पालन करनेका उपदेश दिया गया है। किम पदके धारण करने से क्या फल प्राप्त होता है यह बात भी वहां यताई गई है। परन्तु निवाशोच्छु मुसुतु साधु उन एहिक फलोंकी रंचमात्र भी पाशांक्षा न करके ही-समस्त संसारके विषयांस तस्वतः उद्विग्न रहकर---पूण निष्काम भाषसे तपश्चरमा करने पर ही योग्यतानुसार उन फलोंको प्राप्त किया करता है। उक्त २७ पदोंमें पहला पद जाति है। इसके अनुसार बताया गया है कि जो सज्जातीय व्यक्ति निर्वाणदीदा धारण करके अपनी जातिका मद न रखकर जिनेन्द्र भगवानकी चरणमेचा भक्ति अथवा तपश्चरण करता है उसको भवान्तरमें ऐन्द्री शिजगा परमा मोर स्व. इन चार जाति से योग्यतानुमार कोई भी जाति प्राप्त हमा करती हैं। पारिवाज्यके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाली उस ऐन्द्री जातिका ही इस कारिकामें सूचन किया गया है। विजया और परमा जातिका वर्णन अागेकी दोनों कारिकाओं में क्रमसे किया जायगा। "स्वा" जातिका वर्णन ऊपरकी कारिकामे ' महाकुल" के नामसे किया जा चुका है। क्योंकि "या" का झार्थ यह श्रारमोत्था जाति है जो कि नियमसे मोक्ष प्राप्त करनेवाले इन्द्र 'क्रवर्ती और अरिहंत के सिवाय अन्य सम्यग्दृष्टि भध्यात्माओंको प्राप्त दुभा करती है। मालुम होता है अन्य कार इस बात को स्पष्ट करना चाहते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीप जबतक मोचको प्रप्त नहीं कर लेना तबतक वह नियमसे देवगति और मनुष्यगतिक उत्तमोत्तम पदोंको ही प्राप्त होता रहता है। यदि वह भाद्धायक सम्याट मनुष्य है तो नियमसे देवाय का ही बन्ध करेगा४ । यह बान पहले भी स्पष्ट की जा चुकी है। किन्तु देवगतिमें वह साधारण देच न होकर विशिष्ट देव सुश्रा करता है यह बतानेका यहाँ प्रयोजन है। . भवनत्रिक—देवों की भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषियोंकी तीन निकायोंमें तथा चारों ही निकायोंकी स्त्री पर्यायमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं हुश्रा करना । इसके सिवाय अन्य भी किन-किन अवस्थाओंको वह प्राप्त नहीं किया करता सो भागमानुसार पहले बताया जा चुका । किन्तु इस कारिकाके द्वारा आचार्य बताना चाहते हैं कि वह वैमानिकोंमें भी सामान्यसाधारण-माभियोग्य किन्विषिक जैसा देव न होकर असाधारण-अनेकों देवोंका स्वामी ५-प्रसूत्रपदान्याहुर्यागोन्द्राः सप्तविंशति । यैनिीतर्भवत्साक्षात् पारिवाज्यस्य लक्षणं ।। १६२ ।। आनिमूर्तिश्च तत्रत्यं लक्षणं सुन्दरांगता । प्रभामण्डलचक्राणि नथाभिषषनाथते ॥ १६३ ॥ सिंहासनोपधारे त्रसामरपोषणाः । अशोकवृतनिधयों गृहशोभावगाहने ॥ १६४ | शेषनाs बासमाः कीति बन्यसा वाहनानि च । भाषाहारसुखानीति जात्यायः सप्तविंशतिः ।। १६५ ।।। २-जातिमानप्यनुत्सिक संभजेदईतां क्रमौ । यो जात्यन्तरं जात्यां याति जातियतुष्टयीम् ।। १६७ ।। मादि०प०३६ ३-वात्मोत्या खिरिमीयुषाम् ।। १४८ ॥ आदिपु०प०६६ ॥४- सम्यक्त्वं ॥६-१९३० सू०
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy