SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ rrierrer चन्द्रिका टीका सैंतीमया श्लोक -देवेन्द्र हुआ करता है । तथा वह असाधारणता किन-किन विपयोंमें हुआ करती है सो दिये गये विशेषणों के द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है। जिस तरह वह यदि मनुष्य पर्यायको प्राप्त करे तो या तो वह असाधारण अभ्युदयिक पदो-चक्रवर्ती तीर्थकर सरीखे महान् पदोंको भोगनेवाला होता है अथवा तद्भवमोचगामी-चरमशरीरी यद्वा कुछ भवमें ही निर्वाण प्राप्त करनेपर भी मध्यवर्ती भवों में सम्मानित महान व्यक्ति ही हुआ करता है। जैसाकि आगे पथनसे मालुम हो सकेगा । कोई पदवीधर जैसा न होकर यदि कदाचित् अन्य साधारण मनुष्य होता है तो वह नियमसे सज्जातीय सद्गृहित्व एवं पारिवाज्यको ही प्राप्त किया करता है और उनको प्रास करके भी मिथ्याष्टिकी अपेक्षा ओज तेज आदि गुणोंमें असामान्य विशेषतासे युक्त हुमा करता है जैसाकि ऊपरकी कारिकामें बताया जा चुका है। उसी प्रकार यहां देवतिके विषयमें मी समझना चाहिये । पहावर ली गई किन-किन्न वादोंरे मिथ्यादृष्टि देवकी अपेक्षा विशिष्ट मा करता है यह बात प्रयुक्त विशेषणोंके द्वारा खुलासा कर दी गई है । यद्यपि वैमानिक देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव भी उत्पन्न हुआ करते हैं फिर भी उनकी प्रधानता नहीं है। उनमें जो परस्पर मान्तर रहा करता है वह दिये गये विशेपणोंक अर्थपर विचार करनेसे मालुम हो सकता है। लब्ध अवस्थात्रोंमें सम्यग्दर्शनके निमित्तसे क्या क्या विशेषता प्राप्त होती है पह दिखाकर उसका विशिष्ट माहात्म्य प्रकट करके दिखाना ही ग्रन्थकारको अभीष्ट है अतएव यही बात वे देवमतियों में भी विशेषणाक द्वारा अभिव्यक्त करके इस कारिकाके द्वारा स्पष्ट कर देना चाहते है। अपने इस प्रयोजनको बतानेमें कारिका पूर्णतया सफल है। शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थअष्टगुपपुष्टितुष्टाः।-इसका विग्रह दो तरहसे हो सकता है। १-अष्टौ च ते गुणाश्च-अष्टगुणाः । तां पुष्टिः तथा तस्यां वा तुष्टाः। २--अष्टगुणाश्च पुष्टिश्च गुणपुष्टी । ताभ्यां तयोर्वा तुष्टाः ॥ अर्थात् आठ गुणों की पुष्टिसे संतुष्ट, अथवा आठ गुण और पुष्टि के द्वारा संतुष्ट रहनेवाले । यहाँपर प्रथम अर्थमें दि अष्टगणात्मक ही मालुम होती है और दूसरे अर्थ में दोनो-पाठ गुण और पुष्टि मित्र भग विवक्षित हैं । दोनों अर्थोंमें यही भन्तर है। अष्टगुमा शब्दसे-अधिमा महिमा लविमा गरिमा प्राप्ति प्राकाम्य ईशित्व और बशिस्त्र इस तरह विक्रियाके आठ भेदोंका ग्रहण किया जाता है । कोषमें भी ऋद्धिक ये पाठ मेद गिनाय है। किन्तु ग्रन्थकारने केवल "अष्टगुण" शब्दका उन्लेख किया है। उन पाठोंका रामोल्लेख यहां नहीं किया है । श्रतएव इस शब्दसे विक्रियाके इन पाठ मेदोंका ही ग्रहण १-प्रभाचन्द्रीय टीकामें गरिमाका उल्लेख न करके उसकी जगह कामरूपित्वको गिनाकर आठ दमवाये हैं।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy