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________________ चन्द्रिका टीम सैंतीसा श्लोक है और यह व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्गका साथक एवं पूर्वरूप होनेसे धर्म हो गयी कारण है कि ग्रन्थकारने भी यहां पर उस कथनका भी प्रकारान्तरसे संग्रह पर लिया। सम्यग्दृष्टि जीवको मोक्षमार्गकी सिद्धि में जिनकी सबसे प्रथम आवश्यकता है उन सम्यग्दर्शन के फलस्वरूप उन तीन परमस्थानोंके होनेवाले लाभका वर्णन करके कर इन्द्रपद का नाम भी सम्यक्त्वके प्रसादसे होता है, यह यनाने है: अष्टगुणपुष्टितुष्टा दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः। अमराप्सरसां परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे॥३७ .. अर्थ-जिनेन्द्र भगवान में हैं भक्ति जिनकी ऐसे सम्यग्दर्शनसे विशिष्ट भव्य जीव चिरकाल तक स्वर्गमें देवोंकी और अप्सराओंकी सभाओंमें रमण किया करते. और आठ गुण तथा पुष्टिसे अथवा आठ गुणों की पुष्टिसे संतुष्ट रहते एवं अन्य देवोंकी अपेक्षा प्रकृष्ट शोभासे भी सेवित रहा करते है। प्रयोजन सम्यग्दृष्टिको प्राप्त होनेवाले सप्त परमस्थानों में से भादिके तीन परमस्थानोंका सम्यग्दर्शनके फलस्वरूप में त्रणेन करनेके अनन्तर चौथे सुरेन्द्रता नामक परमस्थानका निरूपन करना क्रमानुसार स्वयं अवसर प्राप्त है। अतएव यह कारिका प्रयोजनबती है। इसके सिवाय बात यह भी है कि उपर्युक्त परमस्थान निमित्त है-माधन है और यह सुरेन्द्रता नामका परमस्थान नैमिचिक---साध्य-कार्य है। क्योंकि परमागममें कन्वय क्रियामोंका वर्णन करते हुए इसको पारिबाज्य नामकी क्रियाका फल ही बताया है। यह काइनेकी भावश्यकता नहीं है कि सुरेन्द्रतासे मतलब केवल इन्द्रका ही नहीं अपितु इन्द्र उपेन्द्र प्रहमिन्द्र लोकपाल नौकान्तिक आदि तथा अन्य भी तत्सम महर्दिक वैमानिक देवोंका है। क्योंकि यह ज्यानमें इनी चाहिये कि यहां आचार्य सम्यग्दर्शनका असाधारण फल बता रहे हैं। ग्रन्थकारका शाशय यह है कि जिस प्रकार उपयुक्त तीन परमस्थान सामान्यतया मिथ्यारष्टि और सम्य. रष्टि दोनोंको ही प्राप्त हो सकते है वेसा यहां नहीं हैं। शेष चार परमस्थान तो सम्यन्द्रष्टिको ही प्राप्त हुआ करते हैं । फलतः इस आभ्युदयिक फलसं तो वैमानिक देवों में भी उन उत्कृष्ट पदोंका ही इस करना चाहिये जो कि सम्पदृष्टिको ही प्राप्त हो सकते हैं। इस तरह सम्पदशनका सातिशय फल एव उसकी नोक्षमार्गमें अग्रेसरता तथा प्रगतिको प्रकट करके रवाना ही इस कारिकाका प्रथम प्रयोजन है। जिसका कि वर्णन यहांपर क्रमानुसार अक्सर पास भी है। सम्पग्दष्टि जीव मिथ्याष्टियांके समान भवनत्रिकमें उत्पन्न न होकर नियमसे वैमानिकही हुमा करता है । यद्यपि मिथ्यादृष्टि भी वैमानिक हुआ करते हैं फिर भी उनकी वहां मुख्यसा नहीं है। जैसा कि कारिकामें प्रयुक्त विशेपणोंके द्वारा भी जाना जा सकता है। इन विशेषणोंसे गुरु वैमानिक सम्यग्दृष्टि ही संभव हो सकता है। -या मुरेन्द्रपदनाप्तिः पायाज्यफलोदयात् । संषा मरेला नाम क्रिया प्रागनुवनिता ॥२०॥ बाद.. ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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