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________________ ३४८ रत्नकरण्ड श्रावकाचार साका विवाह तो यद्यपि कंसके साथ होना ही चाहिये परन्तु उसकी जातिका तो निश्चय हो नहीं है । अस्तु पूछने पर कंसने अपनेको एक कलालीका पुत्र बताया। परन्तु जरासंथको बात जंची नहीं । मनमें सोचा आकृतिका ती १ ॥१४॥ जांच शुरू हुई | कलाली बुलाई गई । प्रमाण देखे गये । रहस्य खुला | मालुम हुआ कि यह क्षत्रियपुत्र ही हैं। सीतापुत्र लवकुशने भी अपनी कुलशीलतापर संदेह रहने के कारण पुत्री देने से मनाई करके वज्रक के साथ अपना भी अपमान करनेवाले महाराज पृथुको रगिय में समस्त सेनाओं से रहित करके भागने से रोककर कहा था कि हमारी कुलीनताका परिचय तो लेते जाओ राजपुत्र वरांगके विषय में भी युद्धके श्रनन्तर सज्जातीयता का संदेह हुआ ही था जो कि फिर दूर होगया । पुरोहित पुत्रीने दासी पुत्र के साथ विवाह हो जानेके बाद कुछ चेष्टाओंसे ही तो निश्चय कर लिया था कि अवश्य ही यह कोई असज्जातीय हैं। जो कि अन्तमें सत्य ही सिद्ध हुआ । इस तरहके श्राप्तोपत्र प्रथमानुयोग में अनेकों ही उदाहरण पाये जा सकते हैं जिनसे कि तत्कालीन व्यक्तियोंकी सज्जातीयता का पता व्यवहार और उसका परिचय देनेके ढंग तथा उसके समझ सकने या परीक्षाकी क्षमता योग्यता आदिके द्वारा लग जाता है । अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार प्रसंगोपास थोड़ासा सज्जातीयता के विषयमें लिखा गया है उसी प्रकार सद्गृहित्व और पारिव्राज्य के विषय में भी यथायोग्य समझ लेना चाहिये | ग्रन्थ विस्तार भयसे यहां अधिक लिखा नहीं जा सकता | सम्यग्दर्शन के जो फल यहां बताये जा रहे हैं वे सब याभ्युदयिक हैं। इनकी प्राप्तिमें पुण्य कर्मका उदय अपेक्षित हैं । किन्तु यहां पर ये सम्यक्त्वके फलस्वरूप बताये गये हैं। यद्यपि यह ठीक है कि वास्तव में सम्यक्त्व निर्वाणका ही कारण बताया गया है, न कि श्रभ्युदयों और उनके भी कारणभूत पुण्यकर्मों के बन्धका, जैसा कि पहले बताया जा चुका है। फिर भी अन्यत्र आगम ग्रन्थों में अभ्युदयोंका कारण भी धर्मको बताया गया है। यद्यपि यह सत्य है कि जहां धर्मको अभ्युदयोका कारण बताया गया है वहां धर्मसे प्रयोजन सराग भाव अथवा उपचारमे मुरागसम्यक्त्वकी बताने का है। तथा इस उपचारका भी प्रयोजन व्यवहार मोक्षमार्गकी सिद्धि४ १- हरिवंश पुराण सर्ग ३३ २- पद्मपुराण अ० १९ श्लोक १५४ - १२७ ३- यतोऽभ्युदयनिः श्रयसार्थसिद्धिः सुनिश्चिता । स धर्मस्तस्य धर्मस्य विस्तरं शृणु साम्प्रतम् ॥ ६८ ॥ आदिपु०प०५ । तथा " यस्मादभ्युदयः पुस निःश्रेयसफलाश्रयः । वदन्ति विदिताम्नायास्वं धर्मं धमसूरथः ॥ यशस्तिः । ४- प्रयोजनं निमिते चोपचारः प्रवर्तत ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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