SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चंद्रिका टीका छत्तीला शोक भाचार्योने सज्जातित्वका निश्चय कर सकने में तीन निमित्त बताये हैं। प्रत्यय अनुमान और पागम१ | इनमें से प्रत्यक्ष वह दिव्यज्ञान है जिसके कि द्वारा विवक्षित व्यक्तिके अन्तरंगमें सद्गोत्र आदि तद्योग्य काँके उदयको बिना किसी परावलम्बनके सीधा स्पष्टतया ग्रहण करके जाना जा सकता है कि यह गति बण झी समागीय है। पिनागाली-अन्यथानुपपन्न चिन्ह विशेषोंके द्वारा अनुमानसे भी उस व्यक्तिकी सज्जातीयताका निश्चय किया जा सकता है। तीसरा साधन आगम है। प्रमाणभृत-गावंचक व्यक्तियों के कहनेपर भी व्यक्तिको सज्जातीयताका निश्चय किया जा सकता है जैसा कि प्रायः आजकल पाया जाता है। ___ यद्यपि यह ठीक है कि सज्जातित्व जैसे विषयका सर्वथा निर्णय करनेमें समर्थ नवीन साधनामें से प्रत्यक्षज्ञान तो आजकल यहां पर उपलब्ध नहीं है | अनुमान ज्ञानको पोग्यता भी इस. हीयमान युगमें प्रायः अत्यन्प और विरल होगई है। फलतः जानकार सम्बन्धित या जातीय व्यक्तियों का पारस्परिक व्यवहार ही इसका निर्णय करनेके लिये साधन शेष रह जाता है। पुरातन कालमें जबकि प्रत्यक्ष ज्ञान असम्भव या सर्वथा दुर्लभ न था और भानुमानिक योग्यता भी प्रखररूपमें पाई जाती थी उस सरल पवित्र प्रशस्त युगमें भले ही आगम-जासीय बानकार व्यक्तियोंके व्यवहाररूप साधनकी नगण्यसा रही हो किन्तु हालमें खो प्रापः यही एकमात्र शरण है। उस युगमें कंवली श्रुतकेवली गणवर चारण आदि ऋद्धिके थारक मनःपर्यवहानी सर्वावधि परमावधि प्रभृति हजारों ऋषियों मुनियों यतियों का जप सर्वत्र विहार पाया जाता था तर उनकी सज्जातीयता विषयक अज्ञानान्धकारको दूर करनेके लिये कहाँसे प्रकाश (सकार नहीं लाना पड़ता था। स्वयं ही उनके मातृपक्ष एवं पितृपक्ष सम्बन्धी कुलसी महत्ता पवित्रता और पूज्यता जगन्मान्य रहने के कारण प्रसिद्ध रहा करती थी। प्रत्युत उन दिव्यज्ञानियोंके सम्बन्धसे तथा कथनसे अन्य वंशोंकी भी उत्कृष्टताका बोध हो जाया करता था। गृहस्थोंमें भी इम योग्यताके व्यक्ति पाये जाते थे कि वे कंवल आकृति चेष्टा या अन्य कर्मोको देखकर जान सकते थे कि अमुक व्यक्ति महान् वंशका है अथवा प्रसज्जातीय है। १-वसुदेव की कृपासे जब कंस जरासंक्की घोषणाके अनुसार युद्धमें विजय लाभ लेकर आया तब जरासंघको यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि प्रतिज्ञाके अनुमार राजपुत्री जीपंज १- सम्प्रदायाव्यवच्छेदावरीधाधुना नणाम । सद्गोत्राशुपदेशोऽत्र यदशहादचारसill श्लोक पार्मिक भ० १॥ भाष्यम् कथमधुनातनाना ना सत्संप्रदायाव्यवच्छेदाविरोधः सिद्ध इति पेन सदगोत्राघ पदेशस्य कथ ? विचारादिति चे माक्षमार्गापदशस्यापि तत एव । कः पुनरत विचार: ? सद्गोकायुपदेशे ? प्रत्यक्षानुमानागमः परीक्षणमत्र विचारोऽधीयने । मोमवंश: क्षात्रयोऽयमिति हि कश्चित्प्रत्यक्षता इतीन्द्रियादभ्यवस्थति तदुपौत्रोदयस्य सद्गोत्रव्यवहारनिमित्तस्य साक्षात्करणान् । कश्चित्त कार्यविशेष र्शनानुमिनोति तथागमादपरः प्रतिपयते ततोऽप्यपरस्तदुपदेशादिनि सम्प्रवायस्यायवच्छेदः सर्वदा नदन्य. घोपदेशाभावात् , सस्याविराधः पुनः प्रत्यक्षादिविरोधस्यासंभवादिति । तदंतमोक्षमागोपजप समाम्।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy