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रत्नकरराङश्रावकाचार
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द्वारा सुरक्षित रहा करता है । यह अपने योग्य भूमि पर विजय प्राप्त होनेको सूचित करनेवाला है | अतएव जब यह उत्पन्न हुआ करता है तभी चक्रपची उससे अपनी दिग्विजयके योग्य समयको समझ लेता है और उसकी पूजन करके तथा उसीको आगे करके दिग्विजयकी यात्राका प्रारम्भ कर देता है। यात्राकै समय चक्र सबसे प्रागे आगे आकाशमें गमन किया करता है और उसके पीछे पीछे चक्रवर्तीका पडङ्ग बल चला करता है इसके कारण ही यह चक्रवर्ती कहा जाता है। जैसा कि अनुगत अर्थको बतानेशले इस वायके द्वारा स्पष्ट किया गया है। क्योंकि वह चक्रवती के मध्य इच्छा और प्रभुन्धकी सिद्धिक साधनों में असाधारण ही नहीं प्रधान मी है। करण यह कि ययापे चक्रपीक विजयके साधन अनक है फिर भी उसका चक्रवर्तित्व इसी पर निर्भर है । शत्रु पर विजय प्राप्त करने में यह सबसे प्रबल अन्तिम और अमोष अस्त्ररूप साधन है । यह नारायण और पत्नशरीरको छोड़कर अन्य किसी भी शत्रु राजा पर चलाये जाने पर व्यथ नहीं जाता । प्रतिनारायणको भी इसकी प्राप्ति हुमा करती है परन्तु अन्त समयमें पुण्यक्षयका अवसर आने पर अपने विरोधी नारायणके द्वारा अपने ही इस सुदर्शन चक्र के द्वारा वह मृत्युको प्राप्त हो जाया करता है। किन्तु यह बात चक्रवर्गाके नहीं हुआ करती । उसका पुरुष विशिष्ट सातिशय हुश्रा करता है।
वर्तयितुम्-खिजन्व इत् थातुसे कदन्तकी तुम् प्रत्यय होने पर यह शब्द बनता है। अपूर्वक भू थातुस धर्तमान अन्न पुरुष बहुवचनमें प्रभवन्ति क्रिया पद बनता है। दोनों पदोंका मिजकर अर्थ होता है कि चकाची उम्र पकको यनिय स्वयं समर्थ छुआ करतारे है।
स्पष्टदशः-स्पष्टा दृक् येषां ते स्पष्टदशः । अर्थात् जिनका सम्पग्दर्शन स्पष्ट है। स्पष्टतासे मतलब विशदता-निर्मलता अथवा जो सवै साथारणको समझमें पा सके, ऐसा लेना चाहिये। सम्यग्दर्शनकी स्पष्टता प्रथम संपेग अनुकम्पा और आस्विक्यके द्वारा दुश्रा करती है। किन्तु ये भी अन्तरंग भाव हैं । असंपत सम्पग्दृष्टिसे लेकर प्रमवतंयत तक सम्यम्वका ये ही तीन गुणस्शनवाले प्रशमादिके द्वारा अनुमानसे ज्ञान करसकते हैं। क्योंकि सम्यक्त्वके साहचर्य से प्रशमादि भावों में और प्रशमादिक साहचर्यके कारण मन वचन कायकी प्रतिमें पूर्व विशिष्टता माये बिना नहीं रहा करती। फिरभी यह सूक्ष्म विशिष्टता असंयतादि तीन गुणस्थानवालोंक ही बुद्धिगोचर हो सकती है । अतएव यह शब्द सम्यक्त्वके सहचारी उस तपरचरण विशेषका बोध कराता है जिसके कि निमिवसे चक्रवर्तित्वके योग्य प्रसापारण उच्चैर्गोत्र आदि पुस्य प्रतियांका बन्ध हुपा करता और सम्यक्त्वका स्पष्टीकरण होता है।
१-हाथी घोगा स्थ पदाात देव विद्याधर । २-चक्र वर्तते सम्राट् रयत इति स तत वर्तयते तथा वर्तयितुम् ।
३-३: स्वसावदितः सूचमनोभान्ताःस्वाँ रशं विदुः । प्रमत्तान्तान्या तज्जवाचेष्टानुमितेः पुनः ॥४॥ भन० ०२॥