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________________ ३८६ मन्य जीव अज्ञानान्धकारसे निकलकर अद्भुत आत्मप्रकाशको प्राप्तकर अनन्तकालर्क लिये अव्यावायस्वरूपको सिद्ध कर सके हैं और कर सकते हैं। इस तरह अपने अद्भुत गुणोंके कारण जिम पदकी जीवन्मुक्त अवस्था वीन लोकके समी प्राणियों के लिये शरण्यभूत है वह सम्यग्दर्शनका महान् फल अन्य प्रकारसे कभी भी संभव नहीं है। यह उसका ऐसा लोसीसर प्राभ्युदयिक फल है जो कि स्वये सर्वोत्कृष्ट पुश्यफल होनेके सिवाय अन्य प्राणियोंके लिये भी समस्तकल्याण का कारण है। जिसकी आराधना इस लोकके इष्ट फलोंकी ही प्रदात्री नहीं अपितु संसारातीत अनन्त शिवरूप अवस्थाकी मी प्रकाशिका और प्रदात्री है। इस तरह सम्यग्दर्शन के फल स्वरूप प्राप्त होने वाले अनिष्टविधात और इष्टावाप्तिम्प दोनों ही वरहके फलोंमेंसे ऐहिक अभ्युदयोंका वर्णन करते हुए अन्तिम महान् पुण्यफल-चीर्थकर पदका इस कारिका द्वारा वर्णन किया गया । इसमें तीर्थकर पदकी प्राप्तिका कारण सरूप और फल बतादिया गया है । पांचों ही कल्याणकोंकी महिमाके माथ साथ परमाहेन्त्य परमस्थान और परमा नामकी जातिका भी वर्णन इसीके साथ होजाता है। अम सम्यग्दर्शनके निमित्तसे प्राप्त होनेवाले अलौकिक फलका वर्णन करते हैंशिवमजरमरुजमक्षयमव्याबाधं विशोकभयशङ्कम् । काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमल भजन्ति दर्शनशरणाः॥४॥ अर्थ-दर्शन ही है शरण जिनको ऐसे जीव उस शिव-परमनिःश्रेयस पदको प्राप्त किया करते हैं जोकि मनरहित है, जरा-वृद्धावस्था, रुजा-रोग, क्षय-हानि अथवा मरण चारों तरफकी विशिष्ट बाधामों में तथा शोक मय शकासे रहित है । एवं जिस के होनेपर जीवके सुख विद्या भौर विभव गुण सलिष्ट अपनी पूर्ण शुद्ध अवस्थापर पहुंच जाया करते हैं। प्रयोजन-सम्यग्दर्शनके फल दो प्रकारके हो सकते हैं और वे दोनोंही प्रकारके फल यहां इस अध्यायमें बताये गये हैं। एक तो कर्मसे सम्बन्धित अथवा सांसारिक और दूसरा कर्मरहित भयवा संसारानीत । कर्म और संसारका सम्बन्ध नियत है । जबतक कर्म हैं तबतक संसार है, और जयतक संसार है सबतक कर्म हैं । कर्मके मूलमें दो भेद ई-पुण्य और पाप । अथवा तीन भेद है-द्रव्यकर्म भावकम और नो कर्म । इनमेंसे पापकर्म और उनके फलोपमोमक लिये भविष्ठानरूप नोकर्म अनिष्ट है । ये सब निश्चयसे मी अनिष्ट हैं और व्यवहारसे भी अनिष्ट है। इसके सिवाय जितने पुस्पकर्म हैं और उनके योग्य विपाकाश परूप नोकर्म है ये सब इष्ट है। यद्यपि परमार्थत:-संसाररूप और उसके कारण होनेसे वे भी समस्केलिये अन्ततो गत्ला परूप न होनेसे अनिष्ट ही हैं। क्योंकि वे भी पास्तवमें अपनी मात्माको निज शुद्धावस्था
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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