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marwarmarwari
चन्द्रिका टीका चालीसा श्लोक रूप न होने के कारण तत्वतः उपादेय नहीं है। फिर भी वे पुण्यरूप अवस्थाएं अन्तिम लक्ष्ष तथा उपादेय अवस्थाकी सिद्धिमें साथन होनेसे अवश्य ही कथंचित् उपादेय भी हैं । अत एव वे इष्ट हैं। मतलब यह कि जो पापरूप अवस्थाएं हैं ये तो सर्वथा अनिष्ट ही हैं किन्तु जो पुण्यरूप अवस्थाएं हैं वे कथंचित इष्ट हैं भौर कथंचित् अनिष्ट हैं। ये पुण्यरूप अवस्थाएं लोकव्यवहारकी दृरिसे तो इष्ट हैं ही परन्तु कथंचित् परमार्थकी साधन हानसे ताविकरष्टिये मी इष्ट ही हैं । क्योंकि साधनके विना साध्य सिद्ध नहीं हुमा करता अतएव साधनके रूप के मुखकैलिये भी इष्ट ही हैं । क्योंकि यद्यपि सम्यग्दृष्टि अथवा मुमुक्षुके वास्तविक लक्ष्य निर्माणका साक्षात् साधन शुद्धोपयोग ही है, शुभोपयोग साचात् साथन नहीं है । इस दृष्टिसे यह अप्रयोजनीभूत एवं अनिष्ट ही है फिर भी शुभोपयोगके बिना शुद्धोपयोग होता नहीं है। प्रतएव पूर्व अवस्था में शुद्धोपयोगकी अन्यथानुपपत्तिके कारण हठात् भादरणीय एवं अभीष्ट माना गया है।
ध्यान रहे कि साधन दो प्रकारके हुआ करते हैं एक समर्थ इसरे असमर्थ । जिनके व्यापारके अननर अभ्यवहित उचर क्षणमें ही कार्य की निष्पति हो जाती है, वे सब समर्थ कारण हैं। और जिनके सहयोग के विना कार्य नहीं हुआ करता उनको असमर्थ कारण कहा करते हैं। पुण्यरूप अवस्थाएं इसी तरहकी असमर्थ कारण हैं।
ऊपर जो कुछ वर्णन किया गया है उससे मालुम हो सकता है कि भाचार्यने कारिका नं०३५ के द्वारा सम्यग्दर्शनका अनिष्टविधातरूप फल बताकर कारिका ने०३६ से इटावाप्तिरूप फलका वर्णन किया है । कार्यको सिद्धिकेलिये प्रतिबन्धक कारणका प्रभाव और साधकरूप कारणोंका मद्भाव उचित ही नहीं, आवश्यक भी है।
सम्यग्दर्शनका वास्तविक फल निर्वाण ही है जैसाकि ऊपर अनेक वार कहाजा चुका है। किन्तु यह बात भी सुनिश्चत ही है और कही जा चुकी है कि कोई भी कार्य अपने कारखोंके विना निष्पन्न नहीं हो सकता । यह पात भी यहां ध्यानमें रहनी चाहिये कि यदि कोई व्यक्ति साधन या कारणका अर्थ कार्य के समय उपस्थितिमात्र ही करता है तो यह ठीक नहीं है। वह अकिंचित्कर कारण, उदासीन कारण साधक कारण और समर्थकारण तथा कारण और करण का स्वरूप एवं उनके अन्तरको न समझनके कारण अपनी सच और तीर्थ दोनोंके विषय में अनमिझता ही प्रकट करता है। .
प्राचार्य श्रीने सम्यग्दर्शनके तान्त्रिक फल निर्वाणकी सिद्धिमें साधकरूप जिन प्राभ्युदयिक पदोंका वर्णन किया है वे छह परमस्थान और चार जातिके रूपमें हैं। इनमेंसे अन्तिम
.-न्यवहरणनयः स्थापयपि प्राक् पदव्यामिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः। तदपि परममयं पिर मस्कारमात्र परविरहितमन्ना पश्यतां नैष किश्चित् ॥५॥ परमात०॥