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________________ चंद्रिका टीका पचवां लोक ०२३ करता है कहता है कि अमुकने मेरा काम विगडवा दिया अथवा मुककी अयोग्यता के कारल मेरे ऊपर यह अनिष्ट प्रसंग भाकर उपस्थित होगया है । जबकि वास्तव में इष्ट अनिष्ट विषयों के लाभमें अथवा वैसी परिस्थितिके उपस्थित होनेमें पैौरुष की अपेक्षा देवकी अनुकूलता या प्रतिकूलता अंतरंग एवं बलवत्तर १ कारण है । मोहोदय के ही कारण यह जीव आत्मकल्याण मोक्षमार्ग बाधक अथवा विपरीत विषयोंमें राग रुचि धारण किया करता और साधक तथा अनुकूल विषयों में द्वेष या अरुचि धारण किया करता है जबकि वास्तविक आत्मकल्याणके लिये दोनों हो भाव विरोधी हैं। यही कारण है कि वीतरागद्वेष भगवानकी देशनाको प्रसारित करनेवाले तथाभूत परमकृपालु श्राचार्य तु भव्यको दृष्टिकोण बदलने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि यदि तुम्हे आत्मकल्याण करना हैं तो सबसे पहले उसके विरुद्ध साधनों या अनायतनों से तो राग व रुचिको और अनुकूल साधनों एवं सेवा किट देना चाहिये । प्रत्यनीक भाक मिथ्यादर्शनादि तीन और उनके आधार - मूढता के विषयभूत तीन ये वह अनायतन हैं । इनसे राग-रुचिको छोड़नेपर और छह श्रापतनों-रत्नत्रय रूप तीन धर्म और तीनोंके धारक तीन प्रकार के धर्मात्माओं से द्वेष और अरुचिको छोड़ देनेपर ही वास्तविक आत्मकल्याण प्राप्त हो सकता है। जब रुंरी इस तरहकी दृष्टि बन जायगी तभी तू सम्यग्दृष्टी कहा जा सकता है और तेरी यह दृष्टि सम्यग्दर्शन कही जा सकती है। अतएव तीन मूढताओंका वर्णन करनेके बाद सबके साथ किस तरह व्यवहार करना चाहिये यह बताने के लिये अस्मय विशेषण का व्याख्यान करना सर्वथा उचित और आवश्यक हो जाता है। यही कारण है कि इस कारिकाके द्वारा सबसे पहले स्मयका स्वरूप उसके विषय और मेदों का उल्लेख श्राचार्यने किया है जोकि भयंत प्रयोजनीभूत है। क्यों कि प्रत्येक कार्यकी सिद्धिके लिये जिस तरह अंतरंग बहिरंग साधक कारणों की उपस्थिति आवश्यक है उसी तरह वाह्याभ्यन्तर बाधक कारणोंकी अनुपस्थिति उनसे बचकर चलने या रहनेकी भी आवश्यकता है। सम्यग्दर्शनको अतिचारोंसे बचाकर ४ और निरतिचार सम्यग्दर्शनकी स्व तथा परमें समुचित प्रवृत्तिके द्वारा ४ इसतरह कुल माठ अंगकेद्वारा जिसतरह उसका शरीर पूर्ण होता है उसीतरह तीन तामसे बचकर चलने वाले के सम्यग्दर्शनका स्वास्थ्य दूषित वातावरण से बचा रहकर सुरचित रह सकता और थर्माओं के साथ अस्मय प्रवृत्तिके द्वारा वही सम्यग्दर्शन सुपुष्ट सुदृढ और सतेज बन सकता है । तथा ऐसा होने परही वह कार्यचम बन सकता है। जिस तरह शरीरको योग्य तथा कार्यक्षम बनाने के लिये उसके आठोंही अंगोंकी आवश्यकता है उसी प्रकार महाभारी आदिके सम्पर्क से उसे बचाकर रखने और अपथ्य सेवन - मिथ्या आहार विहारसे भी बचाने की आवश्यकता है। उसी तरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये । अष्टांग सम्यग्दर्शन को तीन मूढताओं १- प्रतिकूलतामुपगते हि विधी विफलत्वमेति बहु साधनता । अवलम्बनाय दिनभर्तुरभूम पतिष्यतः करसहस्रमपि ।। लोकोक्ति, अथवा नेता यस्य बृहस्पतिः प्रहरणं वज्र सुराः सैनिकाः स्वर्गे दुर्गमनु महः क्रिक हरेरैरावणो वारणः। इत्याश्चर्य व लान्वितोऽपि बलभिद - भन्नः परैः संगरे, तद्वक्त' ननु देवमेव शरण धिग्निग् वा पौरुषम् । आत्मा ||३२||
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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