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________________ maratpAALAAAAAmree रलकरगडावकाचार है । शिवपर्यायका यह समस्त दांपाक अभावको वतानवाला अन्तिम विशेपर है। जो इस घातको बताता है कि शिवपर्यायमें परिणत होने पर जीव के साथ न तो द्रव्यकर्म भावक्रम नो कर्मरूप पुद्गलका किसी भी प्रकारका सम्पर्क रहा करता है और न तजनित कार्योकं सद्भाव के विषय में किसो भी प्रकारकी शंका ही शेष रह जाती है। भविष्यमें फिर कभी भी इस तरह की प्रशुद्धि प्राप्त नहीं होगी पह भाशय इससे सूचित हो जाता है । क्योंकि यदि किसी भी पदार्थ के एक बार शुद्ध हो जाने पर भी पुनः अशुद्ध होनेकी संभावना बनी हुई है, आत्माके सुखी हो जाने पर भी फिरसे उसके दःखी होने की सम्भावना पाई जाती है तो उस वास्तष और सर्वका एवं पूर्णरूप: शुद्ध तथा सुखी नहीं माना या कहा जा सकता । यथार्थमें सुरू वही है जो कि फिर अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होता और न हो सकता अथवा जिसमें किसी भी प्रकारकी असुखताका भाव अथवा मिश्रण नहीं पाया जाता। शंका हो सकती है कि कर्म नोकर्मके हट जाने पर भी तमिमित्त कार्य यदि बना रहे तो क्या हानि है ? सिद्धावस्थास पूर्व जर्मनीने धिमिरा रिपार जी का होता है वही मुक्त होने पर भी बना रहता है। इसी प्रकार अन्य कर्मकृत काकि विषय में भी यदि माना जाय तो क्या श्रापत्ति होगी ! इसका उत्तर "विमलं' विशेपणस हो जाता है क्योंकि यह पर्याय सभी तरहके और समस्त विकारोंसे रहित है, यही इसका भाशय है । मुकावस्थामें जो प्राकार रहता है वह अन्तिम शरीराकारसे किंचिद् ऊन होता है और यह श्रात्माके स्वभावक विरुद्ध कोई विकार नहीं है और न फिर उसमें कोई अन्तर ही पड़ता है। ऐसा यदि न माना जायमा तो संसार और मोक्षमें किसी भी प्रकार अन्तर ही स्थापित नहीं किया जा सकता। फलतः इस विशेषणसे मुक्त जीवके सम्यक्त्वकी पूर्ण निर्विकल्प समीचीनता, उसकी अनन्तकालीन तदवस्थिति, पगुणपर्यायकी सम्पूर्ण विशुद्धि, आदि विषयोकी सिद्धि और साथ ही अवतार वादका खण्डन भी हो जाता है। ___ मजन्ति-क्रियापदका अर्थ संपन्तै प्राप्नुवन्ति अथवा अनुभवन्ति होता है । जिसकी मतलब यह होता है कि सम्यग्दर्शनकी शरणग्रहण करनेवाले अन्त में उस समस्त विशेषखोस सर्वात्मना शिवरूप पर्यायको अवश्य ही प्राप्त किया करते है । तथा पदार्थमात्र उत्पादध्यमधौव्यात्मक एवं परिणमनशील होने के कारमा उस अवस्थामें भी पुनः पुनः परिगमन करते रहने पर भी उसी शुद्ध सुखरूप अवस्थाका ही सेवन करते रहते हैं, प्रतिषण नये-नये रूपमें भी उसीको प्राप्त करते रहते हैं और सदा उसीका एकरूपमें दी अनुभव करते रहते हैं। दर्शनशरणा:-इस पदका दर्शनं–सम्पग्दर्शनं शरी-प्रवरा येषाम् । इस तरह बहुव्रीहि समासकै रूपमें अथवा दर्शनस्य शरणाः इस तरह पछी तत्पुरुष समासके रूपमें, दो वरासे विग्रह हो सकता है । मर्यात् दर्शन ही है शरण जिनके, अथवा जो दर्शनकी धरसमें -- ५-परनिरपेक्षाः बागलघुविकाराः । बनसोचवले ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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