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________________ बलिया का क E सम्यग्दर्शनने जिनको अपनी शरण में ले रखा है वे जीव इस तरहकी शिवको अन्त अवश्य प्राप्त किया करते हैं। दो तरह समास जिनका कि यहां निर्देश किया गया हैं, उनके अर्थ में जो धन्तर पड़ता है उसका स्पष्टीकरण "सुखविद्याविभर्व" का अर्थ करते समय किया जा चुका है। उसी प्रकार यहां भी तत्पुरुषमें उत्तर पदार्थको प्रधान मानकर और बहुव्रीहि समास में अन्य पदार्थको प्रधान मानकर भिन्न भिन्न दो तरहसे अर्थ कर लेना चाहिये । सोत्पर्य यह कि सम्यग्दर्शनका जो अन्तिम और वास्तविक फल बताया है वह शिवपर्यायी निष्पति है जिसका कि स्वरूप इस कारिकाके द्वारा बताते हुए उसके संबंध में प्रायः सभी ज्ञातव्य विषयों का स्पष्टीकरण कर दिया गया है। आत्माकी यह वह अवस्था है जो कि अनादिकाल से चली आई उसकी दुःखरूप संसार अवस्था और उसके समस्त भेदोंसे परे तथा उस संसार एवं उसके सभी विकल्पों के कारखांसे भी सर्वथा असंस्पृष्ट है। यह दुःखरूप संसार से सधा पृथक और सभी अंशोंमें कल्याणरूप है । यही कारण है कि इसको शिव नामसे कहा गया है। इस नामसे उसका सदभिधान करके, न केवल पूर्ण मुक्तावस्था के न मानने वालोंका खण्डन ही कर दिया है, बल्कि शिव नामसे कहकर उसको केवल निदु:ख - निराकुल- मज्ञानादिदोषोंसे रहित कहकर केवल निषेधरूप में अथवा याकार परिच्छेद परांगम्मुख चैतन्यरूपमें कहने वालोंका भी परिहार कर दिया है। सम्यग्दर्शन के फलरूप में दिखाकर उसकी कारणन्यता बताते हुये ईश्वरकी अनादिमुक्तता के विषय में हो सकने वाले श्रद्धानसे भी भव्य जीवोंको बचा लिया है। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जो भी भव्य जीव इस समर्थ कारणको अपने प्रयत्न से -- निसर्ग अथवा अधिगम द्वारा प्राप्त करलेगा बड़ी इस पर्यायको प्राप्त कर सकता है। अतएव इस विषय अहं तवादकी मान्यता किसी भी तरह युक्त नहीं है । इसी तरह शिवके अजर यदि सात विशेषणोंके द्वारा मी विभिन्न विपरीत मान्यताओंका निषेध करके उनकी श्रश्रद्धेयता व्यक्त कर दी गई है। तथा प्रकृत ग्रन्थकी आदि जिस धर्म के वर्णनकी प्रतिज्ञा की गई है और प्रतिज्ञाके समय उसकी जो समीचीनता तथा कर्म निवईणता श्रादि विशेषताका उल्लेख किया गया है उसकी तरफ भी यहां अध्याय की समाप्तिसे पूर्व उपसंहार करते हुये दृष्टि दिला दी गई है। F सिद्धावस्था में अभिव्यक्त होने वाले आत्माके आठ गुण प्रसिद्ध हैं। जो कि दो भागों में विभक्त हैं-वार अनुजीवी और चार प्रतिजीवी । कारिका के पूर्वाधमें चार प्रतिजीवी मस्व, अवगाहन, अध्याबाध और अगुरुलघुत्वको तथा तीसरे चरण के द्वारा अनन्तचतुष्टय रूप में चार भनुजीबो-- अनन्त सुख अनन्त ज्ञान अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य गुणों को बताया है। तथा विमल कहकर उसकी सभी शेष विकृतियोंसे भी शून्यता परमशुचिता तथा औपचारिक दोनोंसे भी रहित पवित्र स्नातकता बता दी गई है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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