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रत्नकरभावकाचार
मवनिमित्तक प्राप्त होनेवाली शक्तियों-त्रिक्रिया आदिके विषयमें तथा शारीरिक गुणधर्मों में भी महान अन्तर रहा करता है।
स्थिति-सम्यग्दृष्टिकी पायुका प्रमाण तेतीस सागर एक हुमा करता है। जबकि मिथ्यारष्टि सहस्रार स्वर्ग तक और कोई कोई अन्तिम मवेयक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं। इसके सिवाय घातायुष्कताकी अपेक्षासे भी विशेषता पाई जाती है। आगममें देवोंकी भायुका पान करते हुए बारहवें स्वर्गतककं देवोंकी आयुमें निश्चित उत्कृष्ट श्राय:स्थिति से कुछ अधिक का भी पाया जाना बताया है। जैसे कि पहले दूसरे स्वर्गकी उस्कृष्ट श्रायु सामान्यतया दो सागर प्रमाण है । परन्तु आगममें दो सागरसे कुछ अधिक कही गई है। परन्तु यह अधिकता पातायुकवाकी अपेवासे है। क्योंकि यदि कोई मिथ्यादृष्टि ऊपरके स्वर्गकी आयुका बच करने के बाद संक्लेश परिणामों के द्वारा स्थिति का पात करके सौधर्मद्विको उत्पन्न होता है तो उसकी उत्कृष्ट आयु दो सागरसे पन्य के असंख्यातवें भागता अधिक होगी । कदाचिन कोई सम्पक्स सहिस जीव यदि वैसा करता है-ऊआरके स्वर्गकी बद्ध आयुका पात करके सोधर्म ईशानमें से किसी में उत्पन्न होना है तो उसकी उत्कृष्ट प्रायु दो सागरसे भाषा सागर तक अधिक होमो। ऐसा सिद्धान्त शास्त्रका कथन है। इस कथनसे भी सम्यक्त्वक प्रवापसे देवायुकी स्थितिमें पाई जानेवाली विशेषता एवं अधिकताका परिज्ञान हो सकता है।
प्रभाव--- इसका आशय शापानुग्रहशक्तिसे है। यह शक्ति ऊपर ऊपरके देवोंकी अधिक अधिक होती जाती है । तथा मिथ्वादृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिकी यह शक्ति विशिष्ट रहाती है फिर भी वह प्रायः संभावना सत्यकी ही विषय रहा करती है।
मुख----यद्यपि साधारणतया मनुष्योंकी अपेक्षा देवोंके वैषयिक सुखको विशिए कहा जा सकता है। क्योंकि कर्मभूमिज मनुष्यों के समान उनके पिय शीघ्र नस्वर तथा सान्तरित नहीं है। परन्तु प्राचार्योंका अभिप्राय यहाँपर वास्तवमें वैषयिक सुखकी तरफ नहीं है। सुखसे प्रयोजन उसी सुखका लेना चाहिये जो कि ऊपर-ऊआरके देवों में अधिकाधिक बताया गया है। इस तरहका सुख बाम विषयों की अपेक्षा नहीं रखता । यही कारण है कि ऊपर-ऊपरके स्वाय गाय भोगोपभोगके साथन एवं विभूतिके कम-कम होते जाने पर भी सुखकी मात्रा अधिकाधिक होती गई है । और यह बात स्पष्ट है कि इस तरह के सुखका संचव जो सम्यग्दृष्टिके हो सकता है वह मिथ्या दृष्टिके नहीं हो सकता। यद्यपि मिथ्या दृष्टिके भी यथायोग्य निराखता
५-सौधर्मेशानयोः सागरोपमंशधकं ॥ तस०
मोकि भोगभूमिजांका मुख मी प्रायः देवोके समान हुआ करता है । भागममें उसको पक्रवर्तक __ सुखसे भी अनन्त गुण बताया गया है, देखो मा पुल तथा तिप० -इसके लिये देवोगा. ० पर्व १६ ।