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________________ चन्द्रिका टीका सेतीमा श्लीफ २५५ कांदाओंकी श्रल्पतरता पाई जाती है। फिर भी यह सम्यग्दृष्टिकी अनिर्वचनीय निःकांच मनोवृति एवं परिणामों तथा सुखकी तुलना नहीं कर सकती । विलेया इन्द्रिय विषय और अवधिक विषयकी भी उत्तरोत्तर अधिकता तथा सभ्यऔर मिध्यादृष्टि के इन गुणोंमें जो विशेषता पाई जाती है वह भी श्रागमके अनुसार सम लेना चाहिये। इसी प्रकार दूसरे विशेषण के द्वारा सम्यक्त्वसहित जीवको देषपर्याय प्राप्त होनेपर जो मिध्यादृष्टि देवकी अपेक्षा विशेषता रहा करती है वह व्यक्त की गई है। क्योंकि मिध्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि में अन्तर बतानेवाली यह असाधारण सैद्धान्तिक बात है । श्रागमका यह नियम है कि जो कोई भी देव पर्यायको धारण करता है उसके अवधि ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम भी अवश्य हुआ करता है। फिर भी मिध्यादृष्टि के इस क्षायोपशमिक ज्ञानको विभङ्गुर और सम्यग्दृष्टिके इस तरहके ज्ञानको अवधिज्ञान शब्दसे ही कहा गया है। साथ ही बताया गया है कि जो विमंग है वह दर्शनपूर्वक नहीं होना, अवविज्ञान ही दर्शन – अवधिदर्शन पूर्वक हुआ करता है। अधरण " दृष्टिविशिष्टाः " विशेष के द्वारा समझना चाहिये कि मिध्यादृष्टिकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि देवदृष्टि – दर्शन अर्थात् अवधि दर्शनसे विशिष्ट४ हुआ करते हैं। आगममें बसाया गया है कि स्वर्गसे च्युत दोनका जब समय आता है तब अनेक प्रकार के जो चिह्न प्रकट होते हैं उनमें मन्दारमालाकाम्लान होना तथा शरीरकी १---भवप्रत्ययो वधिर्देवनारकाणाम् ॥ स० सू० अ० १ सू० २१ २ -- सर्वार्थसिद्धि ० सू० १-२१= "देवनारकाणामित्यविशेषाभिधाने पि सम्यग्दन्तमेव महणम् । कुतः ? अवधिमहणात् । मिध्यादृष्टीनां विभंग इत्युच्यते ।" तथा १-३१ की स० सि० "यथा चावाधज्ञानेन सम्यग्दृष्टिः रूपिणोर्यातव गच्छति तथा मिध्यादृष्टिर्विभंग ज्ञानेनेति । ३- यद्यपि षट० सत्त्ररूपणाके सूत्र नं० १३४ की धवला टीक के इस वाक्पसे कि "बिभंगदर्शनं किमि. विपृथग्नक्तमिति चेन, तस्सषधिदर्शनेऽन्तर्भावातू" इस का भ्रम हो सकता है कि अधिदर्शन में विभंगदर्शनके अन्तर्भावको बतानेसे मालुम होता है कि अवधिदर्शन भी बाग़ममें मान्य है। परंतु ऐसा नहीं है क्योंकि संतसुत विवरणमें बताये गये आलापांके देखनेसे स्पष्ट है कि विभंगज्ञान दर्शनपूर्वक नहीं हुआ करता । ४— इस पद्का प्रभाचन्द्रीय टीका (मुद्रित) में कुछ अर्थ नहीं पाया गया। पं० सि० श० गौरीलालजीने केवल विप्रहमात्र किया है। और प्रायः सभी टीकाकारोंन "सम्पदर्शन से विशिष्ट "ऐसा ही अर्थ किया है । परन्तु हमको यह अर्थ नहीं जंचा। क्योंकि इसी अर्थका वाचक एक शब्द "जिनेन्दभक्ता" यह पड़ा हुआ है। अन्य इस प्रकरणको कारिकाओंमें भी इस अर्थका वाचक एक-एक ही शब्द वाया जाता है । पुनरुति व्यर्थ ही है। अतएव हमने यह अर्थ दिया है कि दृष्टि अर्थात् अवभिदर्शन, बो कि संग भी है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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