SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भामाशा फीका पड़जाना भी है। परन्तु कहा गया है कि सामान्य देवोंके समानर इन्द्रोंक उतनी अधिक म्लानता नहीं पाया करती । इससे स्पष्ट है कि जो विशिष्ट पुण्यके धारक है उनके शरीरकी शोमाकी माचा भी अधिक ही रहा करती है । अत एव इन्द्रके ही समान सम्यक्वकै कारण सातिशय पुरपके भागी भन्य देवोंके शरीरकी मी शोभा मिथ्यादृष्टियोंकी अपेक्षा महान् ही हुआकरनी है। इसी बातको सूचित करने के लिये मालुम होता है कि शोभा शम्दके साथ प्रकृष्टशब्दका प्रयोग किया गया है जो कि स्वभावतः अन्यापेक्ष होनसे उसकी प्रकर्षताको व्यक्त करता है। इसके सिवाय प्राप्त होनेवाली इस प्रकृष्ट शोमा सम्बन्धमें सम्यग्दृष्टिकी जो विशेषता है वह ऊपर "जुष्टा" शब्दका अर्थ करते समय बतादी गई है। अत एव उसके यहाँ पुनः दुहरानेकी भावश्यकता नहीं है । उसीसे मालुम हो सकेगा कि सम्यग्दृष्टिकी नि:कांक्षतामा यह माहात्म्य है कि उसको न चाहनेपर भी उदितोदित वैभव-विशिष्ट पुण्य कर्मोंके फल स्वयं प्राप्त हुमा करते हैं। मिथ्याष्टिके समान वह उनकी इच्छा नहीं किया करता। प्रश्न-ऊपर माठ गुणोंके वणनमें एक युति भी गिनाई है शरीर वस्त्र भूषण आदि की दीप्ति-कान्तिको ही युति कहार जाता है। शोभा भी यही है। अत एव जर उसका निर्देश पहले विशेषण के द्वारा गरे आडमुलाम ही अन्तत हो जाता है संब पुनः उसीका वर्शन करनेकेलिये इस तीसरे विशेषखका कयन करना क्या पुनरुक्ति नहीं है ? उत्तर-प्रथम तो धर्मका और उसके फलका वर्णन करनेमें पुनरुक्ति दोष माना नहीं जाता क्योंकि उसमें भाचार्योंका हेतु किसी भी तरहसे तत्वावधान और तदनुसार कन्या कारणभूत समीचीन भाचरण में रुचि उत्पन कराना ही रूप रहा करता है। अत एव इसलिये उन्हें किसी विषयको बार बार भी यदि कहना पडे तो वह इष्ट प्रयोजनका साधक होनसे दोष नहीं है। यह दोष तो न्याय व्याकरण दर्शनशास्त्र भादिमें ही देखा जाता है। पर्मके व्याल्पानमें नहीं । और यह समीचीन धर्मशास्त्र ही है, जैसा कि अन्यकर्चा आचार्य भगवान के प्रतिकार पास्पसे स्पष्ट होता है। फिर भी यह बात अच्छीतरह ध्यानमें रखनी चाहिये कि यहापर पास्तबमें पुनरुक्ति नहीं है। क्योंकि दोनों ही गुख भिन्न भिन्न कमोंके उदयकी भाषेचा रखते हैं। शरीरकी युति मादेव नाम कर्मके साथ साथ वर्णनामकर्मके उदयकी अपेक्षा रखती है। और शोमा, शुभ सुमग संस्थान निर्माण मादि नामकोके उदय की अपेक्षा रखती है । इस तरह दोनों में बहुत पड़ा अन्तर है। इस प्रकार विशिष्ट सातिशय पुश्यके बलपर सभ्यग्दृष्टि जीव जिस ऐन्द्री जातिको प्राप्त किया करते हैं उसमें अन्य साधारण मिणदृष्टि देवोंकी अपेक्षा म्या क्या अन्तर पायां -इसके लिये देखो पद्दी पर पूर्वमें उदधृत स्वगप्रच्युतिलिंगा नियवान्वेपी सुधाशिनाम् । स्पष्टानित सदाना कितु तेरोन कनचित् ॥३॥ पापु०१०११। ५-भारीरवसनाभरम्पविदीप्ति विससि०१-रागामि समीचीन धर्म कर्मनिपईगम् ।।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy