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रस्तफराविकाधार परिग्रहक १० भेद है । हिरण्य सुपर्थ धन वान्यादि २० प्रकारकी गृह्य वस्तुओंके भेद से बास परिग्रहके १० भेद होते हैं । इन वस्तुओंके ग्रहण करने में प्रमत योग और मूाभाव पाया जाता है इसीलिये इनको पाय परिग्रह शब्दसे कहागया है। स्वयं प्रमत्तयोग अथवा मूर्धाभाव अन्तरंग परिग्रह है। यह मूर्छाभाव तथा योगोंमें प्रमचता मोहनीय कर्मके उदय की अपेक्षा रखती है अत एव मोहनीय कर्मके उदयस जितने भी जीवके विभाव परिणाम होते हैं वे सब अन्तरंग परिग्रह हैं। उन विभाव परिणामोंको १४ भागोंमें विभक्त किया गया है । अन्तरंग दृष्टि से एवं शुद्ध तत्वके विचारकी दृष्टिसे यही संसार है, यही संसारका बीज है और सम्पूर्ण कर्मोका राजा माने गये मोइनीयकर्मका यही परिकर तथा साम्राज्य है। जिन जीवोंने इस बीजको अन्तरंग में से निकालकर फेंक दिया है और उसके बदले मोक्षमार्गके वीज भूत सम्यग्दर्शनको प्राप्त करलिया है वे संसार चक्र से मुक्त हैं और मोहके साम्राज्यसे भी पृथक हैं । इसके विपरीत जो ऐसा नहीं कर सके है वे संसारी हैं, संसारपटियंत्र के पहिये हैं, मोहके परिजन है अथवा सम्पूर्ण भोगोपभोग या विषयों में अनुरक्त रखनेवाली मोहकी किंकरी-श्राशाके किंकर हैं और इसी लिये समस्त संसारके दास हैं।
पांचाही इन्द्रियों के विषयों तथा तदनुकूल सभी भोगीपभोग के साधनों का सम्बन्ध उनके प्रति अन्तरंग भासक्ति मूच्र्छा और मोह भावको उसी प्रकार प्रकट करता है जिस तरहसे कि पुत्रको उत्ससि माता पिताके सम्बन्ध को सूचित कर देती है। अतएव जो व्यक्ति परिग्रहों में मासक्त रहकर भी अपने को उनसे अलिप्त मतानेका प्रयत्न करते हैं वे अवश्य ही पाखण्डी हैं अपनी असली अंतरंग निम्न कोटिकी पित वृत्तिको छिपाकर अयथार्थ उच्चकोटिक सदभावों को व्यक्त करने की चेष्टा का नाम पाखण्ड है। फलतः संसारमं जो आसक्त हैं परन्तु अपनेको अनासक्त दिखाते हैं या बतात हैं अथवा जी वैमा अपने को दिखाते या बतात तो नहीं है परन्तु बास्तवमें है भासक्त ही, वे सब पाखण्टी हैं । इन्हीको यहाँपर सग्रन्थ शब्दसे बताया गया है।
भारम्भ-अंथ शब्दकी तरह यहभी मोगरूढ शब्द है आज पूर्वक भ्वादिगणकी ३राभस्यायक रम थातुसे धपत्यय औरसुम्का मागम होकर यह अन्द बनता ई निरुक्ति के अनुसार यद्यपि किसी भी कार्यका उपक्रम शुरू करना इसका अर्थ होता है किन्तु प्रकृत में भोग अथवा उपभोग रूप विषयों के अर्थ तथा पक्षण के लिये जो प्रयल किया जाता है उसको ही आरम्भ कहते है।
मागम में मनुष्यों के दो भेद बताये हैं। मार्य और मलेच्छ भार्यों के चातुर्वर्य धर्म की व्यवस्थाको दृष्टि में रखकर उनके योग्य प्रार्जीविका के लिये किये जाने वाले प्रयनोंको सामान्यतया १-मिथ्यात्व-वेद रागास्तव हास्यादयश्च षड् दोशः । चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा पन्थाः ॥११६|| पु०सि०। इस तरह ५४ मध्यन्त तथा क्षेत्र वास्तु हिरसय सुवर्ण धन धान्य दासी दास कृप्य और भांड। ये दश वाह्य परिग्रह है। २--आशाया ये कासास्ते दासाः सर्वलोकस्य । श्राशा येषां दासी सेपो दासोऽखिलो लोकः । ३-"राभस्थमुपक्रमः" सि० को नवबोधिनी!