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________________ चंद्रिका टीका चोवीसवां श्लोक २१७ छह भागोंमें विभक्त किया गया है-असि मसि कृषि वाणिज्य विधा और शिल्प१ । ये सभी कर्य सामान्यतया सावध हैं। इनके करने में किसी न किसी रूपमें थोड़ा या बहुत पापका संचय अवश्य शेखाई। जो एक समान का साधन जहां किया जाता है ऐसे संन्यस्त पाश्रममेंर रहने के लिये अब तक असमर्थ हैं और दार परिग्रह करके गृहस्थाश्रममें रहते हैं उनको अपने परिग्रह की सिद्धि के लिए उचित आरम्भ करना भी आवश्यक हो जाता है, अतएव उनके लिये आरम्भ कथंचित् विहित है-उचित है शेष तीन आश्रमों में वह श्रावश्यक नहीं रहता । वानप्रस्थ और संन्यस्ताश्रममें सो सवथा अविहित है। अतएव जो व्यक्ति गृहस्थाश्रम को छोड़कर वानप्रस्थ अथवा संन्यस्ताश्रममें अपनेको उपस्थित करके गृहस्थाश्रमियों के योग्य प्रारम्भ कर्म करता है वो उसेमी पाखण्डी ही कहा जा सकता है क्योंकि वह आगम की आशा का भंग करता है और लोगोंको धोखा देता है। ऐसे पाखण्डियों के नेतृत्वमें जीवोंका आन्मकल्याण मिदीनो गकता वह या तो संशपमें पड़ जा सकता है अथवा वंचित या बाधित हो जा सकता है। हिंसा-पात-बध आदि अर्थोमें प्रयुक्त होनेवाली रुधादि गणकी३ हिसि धातुसे भाव अर्थमें व्युत्पत्र होकर यह शब्द बनता है । आगमके अनुसार इसका अर्थ प्रमच योग द्वारा होनेवाला प्राय ग्यपरोपज होता है। लोकमें सर्व साधारण व्यक्ति अहिंसा और दयाका एक ही अर्थ समझते हैं परन्तु ऐसा नहीं है । दया परोपकारपरक सराग भाव है और अहिंसा सभी प्रकारकी राग द्वेषरूप कषाय की निवृचिरूप है। रागद्वेषके द्वारा अपने प्राणोंका निश्चित रूपसे बध होता है अतएव उसे हिंसा कहते हैं । करायके निमित्तसे प्रमस बने हुये अपने योगके द्वारा मन वचन काय की प्रवृत्तिसे जब दूसरेके भी प्राणोंका वियोजन होता है तो उसको भी हिंसा कहते हैं पहली भाव हिंसा और दूसरी द्रव्य हिंमा कही जाती है क्योंकि उसमें अपनेही भावोंका पात होता है और इसमें अपने से भिन जीवके भी प्राणोंका वध हुआ करता है। पांचाही इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन यदि संयत नहीं है हिंसाके पापसे बचाकर रखनेवाले श्रास्पक तरूप नियमोंसे युक्त नहीं है तो बहमी हिंसाके पापसे अस्पृष्ट नहीं माना जासकता और नहीं रहही सकता है। इन्द्रियों में दो इन्द्रियों की प्रकृति प्रबल एवं सर्वाधिक है। म्पर्शन और ग्लना५ दोनोंही इन्द्रियोंकी प्रतियां यदि अयुक्त हो तो सर्वसाधारणमें भी निन्द्य मानी जाती है । फिर यदि कोई व्यक्ति संसार का परित्याग कर आत्मकल्याणके आदर्शभूत पद को प्राप्त करके भी लिसिविः कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च । कर्माणोमानि पोढा स्युः प्रजाजी नहेतवे । परन्तु पशु पालब भी वैश्यों का कर्तव्य बताया है। यथा-" वैस्या व ऋषिवाणिभपशुपाल्पोपजीविमः " ॥१wधामादि पुराण। २-जिस तरह ब्रामण-पत्रिय-वैश्य और राव ये चार वर्ष हैं उसी तरह चार आश्रम हैं यथा-प्रमचर्य गृहस्थम वानप्रस्थं भिक्षुकः । चत्वार श्राश्रमा एते सप्तमांगाद्विनिर्गताः ८४|| आदि पुराण ३-एही धातु घुपदि गण में भी पठित है। ४-प्रमच योगात्माणव्यपरोपएं हिसा । न० सू० ॥१३ -सा रसणि कम्माण मोहणी सह पयाग बम्हें । प गुतीण य मणगुत्ती पउरो दुक्खेण सिझति । २०
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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