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________________ २१५ चंद्रिका टीका चोधीसदा श्लोक निश्चय करनेकेलिये वे सत्य एवं असत्य तथा हितकर और अहितकर विषय को स्वयं ही सरलतया एवं स्पष्ट रूपमें समझ सकें । यह सभी के समझ में आसकने वाली बात है कि जो व्यक्ति स्वयं ही अहितकर एवं अहित रूप दोषों से युक्त है वह दूसरोंको उन दोषोंसे मुक्त नहीं कर सकता । ऐसे ऽयक्तिको भादर्श मानकर उसका अनुसरण करके उसके नेतृत्वमें चलकर कोई भी व्यक्ति वास्तवमें अपना कन्याण नहीं कर सकता। क्योंकि जो स्वयं ही डूबे हुए हैं या इबनेवाले हैं वे दूसरोंको किस तरह तार सकते हैं। जो पत्थरकी नाव स्वयंही पार नहीं जासकती उस पर बैठनेवाला तो पार होही किस तरह सकता है ? नहीं हो सकता । अत एव ग्रन्थकर्ता आचार्य हितबुद्धिसे जो संसारको दुःखरूप समझनेवाले हैं और इसीलिये उस की दुःकरूपताके कारणों को जानकर उससे परिनित होने के इच्छु: मुमुक्षु हैं उनको इस कारिका द्वारा यह बतादेनाचाइते है कि मोक्षमार्गमें पलनेके लिये तुमको अपना नेता किसतरहका चुनना चाहिये । आत्मा और उसका हित पचपि युक्तिसिद्ध अनुभवसिद्ध और आगम प्रसिद्ध है किन्तु इन्द्रियगोचर नहीं है । तुम अल्पज्ञ हो युक्ति अनुभव और आगमज्ञान तीनों ही में अत्यन्त अन्न हो, निनकोटिमें अनस्थित हो । सर्वज्ञ तो इस समय उपस्थित ही नहीं है । इन विषयों में पूर्णतया समाधान करके निःशंक बनासकने वाले विशिष्ट ज्ञानी पुरुष भी प्रायः दुर्लभ हैं। ऐसी परिस्थिति में जो आत्मा और उसकी संसार मुक्त दो अवस्था तथा इन दोनों ही परस्पर ३६ के अंककी तरह विरोधी अवस्थाओंके परस्पर विरुद्ध कारणोंपर विश्वास करता है और इनमें से संसार भवस्था को दुःखरूप समझकर उमो सर्वथा निवृच होकर निर्वाणको सिद्ध करना चाहता है तो उसका कर्तव्य है कि अपने प्रादर्श के अनुकूल ही पुरश्चारी नेताका निर्वाचन करे । यदि वह ऐसा न करके सर्वसाधारण संसारी मनुष्य के समान व्यवहार करनेवालेको अपना नेता मान कर चलेगा और उसीको आदर्श समझकर प्रवृत्ति करेगा तो वह निर्वाणको सिद्ध नही कर सकता-संसारको ही सिद्ध कर सकेगा 1 अत एव सम्पदृष्टि मुमुक्षु को सावधान करदेने केलिये यह बता देना ही इस कारिकाका प्रयोजन है कि मोक्षमार्ग साधनमें यदि तुम इस तरहके व्यक्तिको अपना अगुमा बनाकर चलोगे तो कभी भी श्रात्मकल्याण को प्राप्त न कर सकोगे जिसका कि व्यवहार तुमसे भी गया चीता है। शन्दोंका सामान्य विशेष अर्थ ग्रन्थ-यह शन्द कौटिल्य-दम्भ-शाय अर्थवाली भ्वादिगणकी प्रथि धातु अथवा संदर्भार्थक चुरादिगणकी अन्य धातु इनमेंसे किसी से भी निष्पन्न हो सकता है। इस के अर्थ भी कोषकारोंने धन शास्त्र भदि अनेक किये है किन्तु प्रकृतमें इसका प्राशय परिग्रहसे है। परिग्रहकामी सात्पर्य जो कोई वस्तु अच्छी तरह प्रहण कर रक्खी है उससे अथवा जिन अन्तरंग परिणामोंके द्वारा जगदमें किसी भी वस्तुका ग्रहण किया जाता है उन जीवपरिणामें से हैं। अत एष परिग्रह के मागममें दो भेद पताये गये हैं । एक अन्तरंग दूसरा बाप । अन्तरंग परिग्रह के १४ और नाम
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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