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________________ २१४ का सम्यग्दर्शन समल एवं निम्नकोटिका माना जा सकता है। साथ ही यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि अधिकतर दोष सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे ही सम्बन्ध रखते हैं फिर भी कदाचित् यह भी संभव हो सकता है कि कपाय और अज्ञानकी निम्न कोटिकी अवस्था अथवा कारणभी सम्यग्दर्शन में समलता पाई जा सके । अस्तु, यहांपर सारांश यही लेना चाहिये कि मुमुक्षु भव्यात्माको मात्मसिद्धि प्राप्त करनेकेलिये उसके मूल कारण सम्यग्दर्शन की विशुद्धि सिद्ध करनी चाहिये और उसकेलिये उसके अन्य दोषोंकी तरह देवमृहता नामक दोष भी छोड़ना चाहिये तथा यह दोष जिन कारणोंसे आसकता है उन सब कारणोंका भी परित्याग करना चाहिये । अब क्रमानुसार प्राचार्य यहां पापएिडमूढताका स्वरूप बताते हैं सग्रंथारम्भहिंसानां, संसारावर्तवर्तिनाम् । पाषण्डिनां पुरस्कारा, ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम् १ ॥२४॥ अर्थ---जो परिग्रह, आरम्भ और हिंसाकमोंसे युक्त हैं तथा जो स्वयं संसार चक्र में पड़े हुए हैं अथवा दूसरों को डालनेवाले हैं ऐसे पाषण्डियों के पुरस्कार को पाषहिडमूढता समझना चाहिये | प्रयोजन - निर्दिष्ट मूढता के तीन भेदों में से दो भेदोंका स्वरूप निरूपण करने के बाद शेष पापड मूढता का स्वरूप बताना स्वयं ही अवसर प्राप्त हो जाता है। दूसरी बात यह है कि किसी भी धर्म का सर्व साधारण में प्रचार उसका स्वयं पालन करके भादर्श नेता बननेवाले व्यक्तियों के द्वारा ही हुआ करता है सर्व साधारण जन तत्त्व के मर्मज्ञ नहीं हुआ करते, वे या तो गतानुगतिक हुआ करते है अथवा मोह लोभ भय आशा स्नेह आदि के वशवत रहने के कारण जिधर उनका प्रयोजन सिद्ध होता हुआ दीखता है उधर को ही शुरू जाते हैं स्वयं ज्ञानहीन रहने के कारण अथवा मोहित बुद्धि रहने के कारख नेता बनकर सामने आनेवालोंकी उक्ति युक्ति और वृद्धि की वास्तविकता की परीक्षा करनेमें वे असमर्थ रहा करते हैं। लोगों की इस दशा से जानबूककर अथवा बिना जाने अनुचित लाभ उठाने वालों की कमी नहीं है । संसारके कारणों से पृथक् रहना साधारण बात नहीं है। विषय वासनाओंको और उनके साधनों को सर्वथा छोड़ कर आत्म सिद्धि के लिये तपस्वी जीवन चिताना अत्यन्त कठिन है फिर आजकल के समय में तो उतना ही कठिन है जितना कि चोर बजारमें किसी या किन्ही व्यक्तियों का वास्तविक सद् व्यवहार पर - न्याय पूर्ण सत्य एवं अचौर्य वृद्धि पर टिके रहना । संसारी प्राणी मात्र के वास्तविक हितैषी महात्माओं का कर्तव्य है कि वे ऐसे विषयों को उनके सामने उपस्थित करदें जिनको कि जानकर और देखकर अपने कम्यायकारी मार्गका १-पाउंड, पाखंड उभावपि रूपी शुद्धी, इति पं० गौरीशाल सिःशास्त्रिणां टिप्परचाम् ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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