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________________ ... . . ..... . . . .. .. .. ... रत्नफरण्डश्रावकाचार तो उत्साही श्रोताके विषयमें संभव हो सकता है कि वह शीघ्रही संसारसे पार होने के मार्ग का पालन करने में समर्थ होते हुए मी उससे चंचित हो जाय । क्योंकि थर्मका अांशिक साराधन निर्वाणका साक्षात साधन नहीं है और उस श्रोताको धर्मके पूर्ण रवरूपका बोध प्राप्त न होकर यदि भाषिक ही परिचय मिलता है तो अवश्य ही वह उतने अंशमें ही तृप्त होकर उत्कृष्ट हितमार्ग से वंचित रह जासकता है। उसके इस अहितका उत्तरदायित्व क्रमभंग करके वर्णन करनेशले ग्रन्थकर्ता या वका पर श्राता है। अत एव वक्ताव लिये उचित यही है कि श्रोताके सम्मुख वह सबसे प्रथम धर्म के पूर्ण स्वरूपका ही प्रतिपादन करे । हां, वसा वारके जो उसका यथावत् अथवा यथेष्ट पालन करने में समर्थ नहीं हैं उनको लक्ष्य करके यदि पीछे आंशिक धर्मका व्याख्यान करता है तो वह अनुचित न कहा जाकर प्रशंसनीय ही माना जाता है। प्रकृत ग्रन्थकाने भी अपनी इस रचना में उक्त प्राचार्य परम्पराका रायर ध्यान रखा है। उसके अनुसार उन्होंने पहले धर्मः पूर्णम्वरूप का निर्देश किया है और बाद में आंशिक धमेका वर्णन किया है। आगयकी स्याद्वादपद्धतिसे परिचित विद्वानोंको यह बतानेकी आवश्यकता नहीं है कि वक्ता भानायका पालन करते हुए अपने विवक्षित किसी भी विषयको गौण या मुख्य बनाकर वर्सन करने भादिके विषयमें स्वतंत्र रहा करता है। वह भागम और पानायकी सीमाका उल्लंघन न करके अपने निरूपणीय विषयका प्रतिपादन करने में अपनी स्वतंत्रताका यथेच्छ उपयोग कर सकता है। यही कारण है कि यहां पर ग्रन्धकाने अामाय के अनुसार प्रथम धर्मके पूर्णरूपका उन्लेख करके प्रांशिक धर्म-संयमासंयम----देशवत अथवा आवकवर्मका मुख्यतया वर्षन किया है । इस विवक्षा और तदनुसार किये गये वर्णनके अनुकूल ही इस ग्रन्थका नाम "रनकरण्ड श्रावकाचार" ऐसा प्रसिद्ध हैं। ___यद्यपि अन्यके उपान्त्य उन्लेखसे१ ऐसा मालुम होता है कि आचार्य ने इसका नाम रिलकरण्ड" ही स्वखा है। परन्तु इसमें मुख्यतया श्रावकधर्मका वर्णन है अतएव इसके साथ "श्राव. काचार" शब्द भी जोड दिया गया है। भागमके अनुसार "श्रामक" शब्दस प्रतिमारूप में व्रत धारण करनेवाला ही लिया जाता है जैसा कि आगे इसी ग्रन्थक उन्लेखस२ विदित हो सकेगा। उसीके ब्रारूप धमका इसमें मुख्यतया किंतु सूत्ररूपमें स्वामीने वर्णन किया है इसलिये इसका नाम "रनकरण्डश्रावकाचार" प्रसिद्ध है। ___अब यहॉपर संसारसे पार होनेक उपायभूत धर्मतीर्थका लक्षण तथा फल यताते हुए और अपनी लघुता प्रकट करते हुए आचार्य उसके वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हैं५-"येन स्वयं वीतकलंकविद्या,-दष्टिानयारत्नकरण्डभावम् । नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, साधोसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु ॥१४ार क. २- भाषकपदानि झरेकादश वेशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह सन्तिा क्रमविदा ॥१३॥ ००।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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