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________________ amanna चंद्रिका टीका दूसरा शोफ देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हगम् । संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२॥ अर्थ-मैं उस समीचीन, कर्मोंका निवर्हण-संवरण एवं निर्जरण करने वाले धर्मका प्रतिपादन कर रहा हूँ जोकि प्राणियोंको संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख में उपस्थित करदेता है.।। इस कारिका विषयमें भी १-प्रयोजन, २.शब्दोंका सामान्य विशेष अर्थ, और ३-तात्पर्य, इस तरह तीन प्रकारसे विचार किया जायगा। १-प्रयोजन संसारी प्राणी समस्त दखोंसे सदाकेलिये उन्मुक्त हो और शाश्यत्तिक उत्तम सुखका उसे लाभ हो, जैसाकि श्लोकले उत्तरार्धमें बताया गया है, इस व्याख्यानका मुख्य प्रयोजन है । इस प्रयोजनकी सिद्धिना नामविक लगायम है साताव उस धमके स्वरूपका ही आचार्य यहां निरूपण करंगे जैसाकि उनके प्रतिज्ञावाक्यसे स्पष्ट होता है । प्रश्न यह हो सकताहै कि इस धर्मके उपदेशकी आवश्यकताही क्या उपस्थित हुई। साथ ही यह कि ग्रन्थकर्ता इस कार्य में पड़े, इसका क्या कारण है१ ? दोनों ही प्रश्नोंका उत्तर विचारणीय है। __सबसे प्रथम विद्वानोको इस बातपर दृष्टि देनी चाहिये कि उत्सम या सत्पुरुषोंका स्वभावही निरपेक्षतया परोपकार करनेका रहा करता है। वे साहजिक रूपसे ही दूसरोंकी भलाई में प्रवृस हुश्रा करते हैं। दूसरोंके कल्याण करनेमें अपने लाभालाभका विचार करना मध्यम या जघन्य पुरुषों का काम है। अतएव ख्याति लाभ पूज्यता आदि किसीभी ऐहिक प्रतिफलकी आकांक्षाके विना ही केवल परोपकारकी भावनाने ही ग्रन्थकको इस कार्यकेलिये प्रेरित किया है । यश अथवा अर्थलाभ लिये जो ग्रन्थनिर्माण किया जाता है वह उत्तम पुरुषों में प्रशंसनीय नही माना जाता ३ संसारकं सभी सम्बन्धोंसे सर्वथा पिरत जैनाचाया की कोई भी कृति अथवा रचना ख्याति लाभ या पूज्यता के लिये ही न तो अबतक हुई है और न वैसा होने का कारण ही है। क्योंकि ये तो अध्यात्मनिरत वीतरागता के उपासक मुमुक्षु हुआ करते हैं। इसलिये उनकी यदि किसी कार्य में प्रश्पत्ति होती है तो उसके दो ही कारण हो सकते हैं; या तो आत्मकन्याण के किसी मी अपने साधन की विवशता अथवा आवश्यकता या दुःखपूरित संसारकूप में पड़ते हुए जीवों को देखकर दयापूर्य दृष्टिसे प्रेरित होकर उनके उद्धार की भावना । एक परम दयालु वेलिए यह 1- "नाह प्रयोजनमन्तरा मन्दोऽप प्रवर्तत" इयुक्तः । २-“परार्थ स कृतार्थोऽपि यदे हेष्ट जगद्गुरु । तन्नूनं महतां चेष्टा परार्थैव निसर्गतः" आपु. १-१८ | तथा "एके सत्पुरुषाः पराभैपटका स्वार्थ परित्यज्य थे,सामान्यान्तु परार्णमुरमभृतः स्वार्थाविरोधन थे। तेऽमी मानुपराक्षसा परहित स्वार्थाय निम्नति थे। येनिघ्नन्तिनिरर्थक परहितं ते के न जानीमहे ।। "इति लोकोत: (भा हरि) प्रथा--"अयं निजः परो घेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरिताना तु वसुधैव कुटुम्बकम्"। इति च लोके । ३-प्रोताम पैहिक किंचित् फार वाम्लोत् कपाश्रु ठौ । नेच्छोहका च सत्कारधनभेषजसंभायाम् ॥१४॥ मोमात सन्मार्ग ऋणुपाचशेर्षा हि सता पेष्टा न सोकराये पा.पु. १४४
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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