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रत्नकरण्डश्रावकाचार संभव भी कैसे हो सकता है कि वह समर्थ रहते हुए भी रक्षणीय व्यक्ति की उपेक्षा करदें । प्रत एव समझना चाहिये कि आचार्यों की परमदयाभाध से प्रेरित नसाध्वी परोपकारिणी सभाबना ही इस ग्रन्थके निर्मासमें अन्तरंग और मुख्यतया कारवनिक कारण है । जगत के जीवों का अज्ञान और कपाय हुशकर संहार रूपी दाधु पूण अत्यपर्म हर्षल दनवाली दुःप्रवृत्तियोंसे सास्थान कर कल्याण के वास्तविक मार्ग को बता देना ही गया उपकार है । इस उपकारके लिए ही ग्रन्थकर्ता प्रकृत ग्रन्या के निर्माण कार्य में प्रथम झुपए है, गंगा समझना चाहिये ।
अब प्रस्न रह जाता है कि धर्म के उपदेश की ही बारश्यकता क्यों उपस्थित हुई ? यद्यपि सामान्यतया इस प्रश्नका उत्तर ऊपर के कथन से हो जाता है फिर भी इस विषय में जो कुछ विशेषता है उसका यहाँ उल्लेख करना भी उचित प्रतीत होता है।
बात यह है कि संसारी प्राणीको वास्तविक हित से वाचत रखनेवाली दो तरह की प्रवृ. चियां पाई जाती है। एक अन्तरंग और दूसरी बाह | अथवा अगृहीत अनादि स्वाभाविक और गृहीत रोपदेशादि के द्वारा उत्पन्न होनेवाली । मन यधन काय की अपने अपने इष्ट अनिष्ट विषयों में जो बीयकी प्रवृत्ति होती है वह उतारे अहितका माला व. और इस विरग में जो इष्ट मनिष्ट कल्पना होती है उसका जो वास्तविक कारण है वही उसके अहितका अन्तरंग कारख है। मूलभून यह अन्तरंग कारण भी और कुछ नहीं, जीवका अतच श्रद्धान ही हैं अनादि कालमें जीव के साथ सो मोहकम लगा हुआ है इसके उदयत्रश इस जीव को तव का श्रद्धान नहीं होता। इस अतच श्रद्धान को ही मिथ्यात्व कहते हैं। क्यों कि वह वास्तविक एवं सत्यभूत वस्तुस्वरूप तथा आत्मस्वरूप से जीत्र को बंचित करनेवाला भान है। अनादि कालसे यह भाव जीप के साथ लगा हुआ है उसीको अगृहीत मिथ्यात्व कहते है । कदाचिद् दूसरोकं मिथ्या उपदेश को सुनकर जो अतघमें श्रद्धा होती है उसको गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । दोनोंका वास्तविक कारण मोद-दर्शन मोह का उदय ही है। दोनों में अन्तर का यदि कुछ कारण ई तो बाह्य कारण की निरपेक्षा और सापेक्षा ही हैं इस मिथ्यात्व भावके कारण जीवकी कषाय वासनाएं भी भस्यन्त तीव्र अथवा इस मिथ्यात्वमाय के अनुकूल या सविरुद्ध ही अपने अपने विषयों में प्रास हुया करती हैं इस कपाय भावना को ही होम शब्द से भागम में कहा है। इस तरा ये अनादि अथवा कथंचित् ३ सादि मोह क्षोभ भाव ही जीव के अहितके ४कारण हैं। निसर्गतः परोपकारमें निरत तत्वज्ञानी इसी दुक्ख अथवा अहित के वास्तविक एवं अंतरंग कारण की निवृति के लिए उपदेश दीया करते हैं उसीका नाम धर्मोपदेश है । इस धर्मोपदेशकी पद्धति अनेक १-"पे पितिपुर्वालो नहि फेनाप्युपेक्ष्यने," त्रिचूडामणि । ९-- यथा-"हतोस्तथापि हेतुः साधी सपकारिणी बुद्धिः" पंचाध्यायी
६-परोपदेशको अपेक्षा सादि भी कहा जा सकता है। ४-"दयादि एसु मूढो भावो जीवस्स हबदि मोहोत्ति । खुब्बदि तेगुरुचरणो पप्पा राग व दोसंशा || मोहण व रागंण व दोसेण व परिणदस्त जीवरस । जायदि विविधो बन्धो तन्हा ते सेखातम्या | माअजधागहर्ष करगामायो र मणुव सिरियेसु । विमयय-अप्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंग्यान ON०१६