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चद्रिका टीका दूसरा श्लोक प्रकार की है परन्तु सबमें सरल तथा मुख्य सर्वसाधारण के द्वारा भले प्रकार एवं अधिक से अधिक प्रमाण में उपयोग हो सके-पालन किया जा सके वह पद्धति यह है कि उक्त मोहयोग कारण जो जीवोंकी मन वचन काय की इस तरह की प्रवृत्ति हो रही है कि जो उन्हीकी संतति चालू रहने में कारण है उन प्रवृत्तियों से जीव की निवृत्ति कराई जाय । ऐसा होनेसे मोइ दोष घोडेसे काल में निर्मूल हो जा सकते हैं। कारण कि असमर्थता अथवा अप्राप्तिमें कार्यका जीवित रहना अथवा उत्पन्न होना शक्य है। __ इस नाइस संसार का कारणोंगी रितिकेलिये जो उपाय बताया जाता है उसीका नाम धर्मोपदेश है । इस धर्मतीर्थक्र प्रवर्तनके पारसही तीर्थंकर भगवा अथवा श्रीवर्धमान भगवान् सर से प्रथम बन्ध है । उसी प्रकार उनके मार्गका अनुसरण करना भी उनके भव्य भक्त सुषमोका कर्तव्य है । ग्रन्थकर्ताका भी इस प्रकृत ग्रन्थ के निर्माणमें यही प्रयोजन है।
प्रश्न-श्रेयोमार्गके साधक मुनियों एवं प्राचार्योको अात्मसाधनमें ही निरत रहना पाहिये परोपकार करनेकी इच्छा और तदनुकूल प्रवृति तो सराग भाय है। उससे तो उन्हें बचना चाहिये । ऐसी हालतमें इस प्रक्षिका क्या कारण है।
उत्तर-~-टीक है। आगममें भी ऐसाही कहा है कि साधुओंको आत्महित ही सिद्ध करना चाहिये । किंतु साथमें यह भी कहा है कि यदि शक्य होती परहितमें भी उन्हें प्रवृत्त होना चाहिये । इभका आशय यही है कि भात्महित और पाहित दोनों में प्रात्महित मुख्य एवं प्रथम उपादेन है। परन्तु परहितमें प्रवृत्ति भी साधुपदके विरुद्ध नहीं है। तथा साधारणतया सभी साधु इस तरह के नहीं हुमा करते कि जिनको बाध प्रप्ति करनी ही न पड़े। श्रतएर उपदेशादिको प्रवृतिका साधुके लिये प्रागम, निषेध नहीं है। फिर भी यह ठीक है कि यह प्रवृत्ति शुभोपयोग रूप है, और आजकल जबकि शुद्धोश्योग संभा ही नहीं है तब शुभीषयोग रूप प्रवनियां ही तो साधुके लिय शेष रह जाती है । हां ! यह ठीक है कि क्षोभराहरु होनी पाहिये । शल्य, ख्याति प्रादि की भावना गाव आदि दोपोस रहित होनी चाहिये।
दूसरी बात यह है कि परोपकार में खोपकार भी निहित ही है परोपकार दो तरहसे संभव है। एक तो पूर्णतया वीतराम व्यक्तियों द्वारा जैसाकि आगे चशकर कारिका में भाप्तपरमेष्ठी के विषयमें कहा जायगा दूसरा निरवध तथा शुभसराग युद्धिसे । पहिले प्रकारका उपकार जहां तक वक्ता सराग अवस्था में है वहां तक संभव नहीं है। अन्यकर्ता महावी होनेसे निरषष शुभकम में प्रवृत्त हो सकते हैं। और ऐसा करने पर उनके गौणवया संवर निजरा तथा मुख्यतया सातिशय पुण्यकर्म बंध होनेसे स्त्रोपकार भी होता ही है। यद्यपि वे उस पुन्यकर्मको म सो वास्तव में उपादेय ही मानते हैं और न खाम उसके लिये ही परोपकारमें प्रकृषि करते हैं। जैसा
-अर्थात माह शाम की दूसरे शब्दों में मिध्यात्म कपाय की अथवा संसार के कारण की। २-आदहिंद कादम्ब अह सफा परहिवं च धावस्व । आवहिदपरहिदायो बादहिवं सह कायव्यं ।
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