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________________ २८ रत्नकरण्ड श्रावकाधार करनेपर तो पुण्यकर्मका अतिशय भी नष्ट हो जा सकता है? | अतएव ग्रन्थकर्त्ता तो इस कार्य में निरपेक्ष बुद्धिसे संसारी प्राणियाँको दुःखरूप अवस्था से निकालने के लिये सत्य शक्य समीचीन सदुपायका जो कि पूर्ण वीतराम भगवानके द्वारा ही कहा गया है दर्शन करनेमें प्रवृत हुए हैं। यही इस प्रवृत्तिका प्रयोजन है । शब्दों का सामान्य विशेष अर्ध देशयामि - दिश धातु तुदादिगणकी है। उत्तम पुरुपके एकवचन में इसका प्रयोग दिशामि होता है। किंतु स्वार्थ अथवा प्रयोजक अर्थ मित्र प्रत्यय करनेपर "देशयामि" ऐसा प्रयोग हो सकता है । दिशुका अर्थ अतिसर्ग - देना होता है। स्वार्थ की अपेक्षा प्रयोजक अर्थमें शिच् प्रत्यय करके इस क्रियापदका प्रयोग अधिक सुन्दर एवं उचित अर्थका बोतक प्रतीत होता है। क्योंकि उससे यह अर्थ ध्वनित होता है कि सर्वज्ञ भगवान् तथा गणवर देवने जिस धर्मका व्याख्यान किया है उसीका में यहां प्रतिपादन करता हूँ। ऐसा कहने से अपनी लघुता प्रदर्शित होने के सिवाय प्रतिपाद्य विषयक सर्वज्ञपरम्परानुगति तथा स्वतः प्रामाणिकता प्रकट हो जाती है । थर्म शब्दका सायं ग्रंथकारने ही याशय कारिका के उत्तरार्ध में निरुक्त्यर्थं बताते हुए स्पष्ट कर दिया है । शेष शब्दोंका अर्थ प्रसिद्ध एवं स्पष्ट है फिर भी सच शब्दपर थोडा ध्यान जरूर देना चाहिये । क्योंकि यहां पर सच्च शब्द सत्ता आदि अर्थका वाचक तो नहीं ही हैं, और श्रागम में प्रसिद्ध संसारी जीवों के चार भेदों-जीव, सन्त, प्राणी और भूत, इनमें से एक भेद - सत्वकाभी वाचक नहीं हैं | यहांपर तो सामान्यतया संसारी जीव अर्थ अभीष्ट है जिसका अर्थ होता है कि किसी भी तरह के दुःख से पीडित आत्मा रे | विशेषण का फल इतर व्यावृति होता है । व्याख्येय धर्मोके स्वरूप भेद एवं असाधारण वैशिष्ट्य को बताने के लिए ग्रंथकारने तीन विशेषणका प्रयोग कीया है समीचीन कर्मनिवर्हण ये दो विशेष जिसतरह इतर व्यावृत्ति तथा विशेषता को बताने के लिए दिये हैं उसी तरह उत्तरापूरा वाक भी दोनों प्रयोजनों को लक्ष करके लिखा गया है। इनमेंसे पहला समीचीन विशेपण पापरूपया एवं सर्वया दुःखरूप इस तरह के धर्मसे व्यावृत्ति के लिए दिया गया है। जिसका कि इस लोक तथा परलोक में दुःखके सिवाय और कोई फल ही नहीं है अथवा जो स्वयं दुःखरूप है । माँ के दूध को दूध कहते हैं परन्तु यांकडा आदि वनस्पतियों के दूध को भी लोकमें दूध १- पुराण' पि जो समीहदि संसारो तेण इहिदो होदि । दूरे तरस विसोही विसरला पुरणाणि ॥ २- यं दिशन्ति अदिशम् वा श्रर्थतः सर्वशदेवा ग्रन्थतो गणधरदेवाश्च तमेवाहम् प्रयोजकत्वेन देशयामि । सर्वशोकमाचार्य परम्परानुगतमेव च धर्मस्वरूपमिद्दाहं वर्णयामि नान्यत् इत्याशयः । ३- सीदन्तीति सत्त्वाः ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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