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________________ en .- --.mannrnmendra-. - - - --.- -. चंद्रिका टीका दूसरा श्लोक शब्दसे ही कहा जाता है । इसी तरह अमृत के समान अजर अमर सुखशांतिके प्रदाता रखशय को जिसका कि यहां वर्णन कीया जायगा धर्म कहते हैं, किंतु लोक में मिथ्यात्व मोह सवाय मज्ञान तथा हिंसा श्रादि पापाचारको भी धर्म शब्दसे बोलते है जो कि दुःखरूप संसारमें अमन का ही कारण है। इस तरह के धमको वास्तव में अधर्म ही समझना चाहिये । इस अधर्म से घचाने के लिए ही समीचीन विशेषण दिया गया है क्योंकि वे समीचीन नहीं हैं। दुःखरूप प्रमा के ही कारण हैं अथवा स्वयं भी दुःखरूप है । समीचीन विशेषण के द्वारा उक्त अधर्मसे निति हो जाती है । परन्तु समीचीन शल्द सेगी दो दक्षा के अर्थ का दोष होता है। एक तो शुभ और दूसरा शुद्ध । जो केवल सांसारिक सुखों का कारण हैं वह शुभ और अनेक अभ्युदयोंके लाभके सिवाय उनका कारण होकर भी जो मुख्यतया संसार निवृत्ति का कारण है वह शुद्ध कहा जाता है। समीचीन विशेषण के द्वारा शुभ और शुद्ध कर्म दोनों का भी बोध हो सकता है अतः निवईण शब्दके द्वारा शुद्ध धर्म का बांध यहां कराया गया है। क्यों कि शुभोषमोगरूप धर्म दो तरह से संभव हैं। एक सम्पक्व सहचारी और दूसरा मिथ्यात्य सहचारी । कर्मीकी वास्तव में संबर निर्जरा तबतक संभव नहीं है जबतक कि सम्यग्दर्शन के द्वारा आत्मद्रष्यमें शुद्धता प्रास नहीं हो जाती । अंगरंग में जिसको यह शुद्धि पास हैं वही जीव कर्मोका निवर्हण नाश करनेवाले धर्मसे युक्त माना जाता है और वही उस धर्म के वास्तविक फलको-संसार और उसके दुःखों से निवृत्त होकर संसारातीत अवस्था और अनन्त श्रव्याचाध सुखको जोकि इस कारिका के उत्तरार्ध में बताया गया है प्रास किया करता है। किन्तु गौणतया सम्यग्दर्शनसे शुआत्माके शुभोपयोग की भी कथंचित शुद्ध कहा और माना जा सकता है। ___इस तरह इन दोनों विशेषणों द्वारा धर्मके द्वविध्यको रहोपर प्रगट कर दिया गया है। ये दो भेद भिन्न २ शद्रों के द्वारा कहे जा सकते हैं। व्यवहार और निश्चय, शभ और शुद्ध परम्परा कारण साक्षातकार इत्यादि । इनका विशेष वर्णन करनेवाले श्रागम ग्रन्थोंका अध्ययन कर इनके स्वरूप का भले प्रकार जिज्ञासुओंको ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और उसको जानकर अविरोधेन प्रवृत्ति करनी चाहिये ।। उत्तम सुखः-- पूर्वार्ध में थगैका स्वरूप वताकर उत्तरार्धमें इसके फलका निर्देश किया गया है। धर्मका फल 'सुख' इतना ही न बताकर उसे उत्तम विशेषण से युक्त करके बताया गया है। मतलब यह कि यहांपर जिस धर्मके स्वरूप का निर्देश किया गया है या जिसका इस अन्य में वर्णन किया जायगा उसका वास्तविक फल सामान्य सुख नही किंतु एक विशिष्ट सुखलोकोसर सुख है। ---लोके विपामृतप्ररूपभावार्थः जीरशम्वन् । वतते धर्मशब्दोऽपि ततोऽनुशिष्यते ॥ अन-र-र २-संजनदि रिणवाणं देशसुरमगावरायविहहिं । जीएस्स चरितादो वेसणणाणपहाणादो। प्र.सा. १-६ अथवा यम्माद्भ्युदया गुंसां निश्रेयस फलाश्रयः वदन्ति विदिलाम्नायास्तं धर्म धर्म सूरयः ।। यशस्तिलक सिया भनगार धर्मात । १-जइ जिगम परवा मा बबहार णिकप मुख्द । पोण पिणा किंवा तिवं माय
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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