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चन्द्रिका टीका ति पलोक जनक प्रतीत भी होती हो तो भी गदि कर्ताका हेतु पैसा नहीं है-अभिप्राय समीचीन है तो वह क्रिया दोषाथायक नहीं हैं । इसी तरह जो अभिमानकै विषय बसाये गये हैं उनका यदि दुरुपयोग न करके सदुपयोग किया जाता है तो उससे भी सम्यक्त्व की विशुद्धिमें बाधा नहीं पाती। इसके विरुद्ध यदि अभिप्राय मलिन है और क्रिया अपमान करनेवाली न भी हो तोभी सम्यक्त्व में मलिनता पाये विना नहीं रह सकती और न पाप कर्मोका बन्ध ही हुए विना रह सकता है।
ऐसा भी देखा जाता है कि एक ही क्रिया भिन्न २ व्याक्तियों के लिये भिम २ प्रकारका ही फल प्रदान किया करती है। कल्पना कीजिये कि एक विद्वानकी असाधारण रचनाको पढ़ कर अथवा शास्त्रार्थ में विजय की बात सुनकर या गंभीर तास्तिक तलस्पर्शी विवेचनाको सुनकर जब अनेकानेक व्यक्ति उसकी प्रशंसा करते हुए पाये जाते हैं तब दो व्यक्ति ऐसे भी हैं जो मौन धारण करलेते हैं, न निन्दा ही करते हैं और न प्रशंसा ही। इन दोमें से एक तो है उसका हितैषी गुरु और दूसरा है स्वभावतः ईर्ष्यालु मत्सरी अकारण द्वेषी दुर्जन । मौन धारण करने में दोनोंके ही अभिप्राय भिन्न २ हैं । गुरु इसलिये प्रशंसा नहीं करता कि मेरे द्वारा की गई प्रशंसा को पाकर यह कहीं उत्सेकमें पाकर अपनी उमति करनेसे वंचित न रहजाय । दुर्जन इसलिये प्रशंसा नहीं करता कि उसको दूसरे के गुणोंका उत्कर्ष और यश सच नहीं है। ऐसी अवस्था में मौन धारण करनेकी क्रिया दोनों की समान होते हुए भी फल समान नही हुआ करता, न होही सकता है । गुरु शुभाशंसी होने से पुण्य फल का मोक्ता होता है और दुर्जन अशुभाशंसी होने के कारण पापयन्व और अनिष्ट फलका ही मोक्ता हो सकता है।
लोगोंके हृदयमें अनादिकालसे व्याप्त अथवा गृहीत प्रज्ञानान्धकारको दूर करके सर्मका प्रकाश करनेकी बलवती भावनासे प्रेरित अनेक प्राचार्य अथवा विद्वान भी कदाचित् प्रसङ्गा नुसार स्वयं अपने ही मुखसे अपने ही ज्ञान विज्ञान आदि की इस तरहसे प्रशंसा करते हुए सुने देखे या पाये जाते हैं जिससे कि दूसरे में नगएपता का भाव अभिव्यक्त हुए विना नहीं रहता। जैसा कि विश्रुत सूक्तियों के अनुसार श्री भट्टाकलंक देवने साहसतुगंकी सभामें जाकर कहा था । किन्तु इस सरह के कथनका यह आशय कभी नहीं हो सकता और न है ही कि उन्होंने इसतरह आत्मप्रशंसा करके या ज्ञानके गर्वको प्रकट करके अपना सम्यग्दर्शन मलिन करलिया
गतेऽपि चिचे प्रसभं सुभाषितर्न साधुकारं वयसि प्रयच्छति । कृशिष्यमुत्सेकभियावजानती गुरोः पर्वधापति दुर्जनः सः ॥
२-राजम् माहसतुग सन्त बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः, किन्तु त्यस्सशोरणेविजयिनस्यागोजता दुर्लभाः तत्सन्ति युधान सन्ति कवयो वागीश्वरा वाग्मिनो, नानाशास्त्रविचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ।। पमम् साग्विविदलनपटुस्त्वं यथात्र प्रमिद्धस्तद्वतापासोऽहमस्या भुमि निखिलमदोत्पाटने परिश्तानाम्। भो पेदेषोऽहमेले तक सदसि सदा सन्ति सन्तो महतो, पातुम् यस्यास्ति शक्तिः स पतु विदितारोपशास्तो मादित्वात् ॥