SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चन्द्रिका नेका चालीपा श्लोक शब्दका और मुक्त अवस्थाको अपेक्षा अध्यशन्दका प्रयोग किया गया है । यहाँ पर यह विशेपख संसारावस्थामें पाई जानेवाली चयपरम्पराका शिवपर्यायमें सथा अभाव बताता है। ___ संसारावस्थामें चयका अर्थ तत्वत्पर्यायसम्बन्धी आयुका पूर्ण होना है। कर्मों के राजा मोहनीय कर्मका जबतक इस प्राणीको परिवर्तनशील सृष्टिके अपर शासम विमान है तब तक उसके जन्मभरणविभागका अधिकारी आयुर्म भी उसके अनुकूल ईशानदार संबककी तरह काम करता ही रहता है। अन्यमान-वर्तमान श्रायुके स्थानपरित्यागके पूर्व ही आगेके लिये नवीन आयु नियुक्त हो जाती है। उस नवीन आयुकं योग्य जीवकी पर्यायका होना ही जन्म, और उससे पूर्व की वर्तमान भायुके योग्य अवस्थाकी समाप्ति ही मरस अथण क्षय कहा जाता है। जब तक मोहका साम्राज्य है सतक यह जन्ममरणकी परम्परा भी अक्षुण्ण भनी रहती है। किन्तु इसके विरुद्ध जब यह जीव योग्य कारणोंके मिलने पर अपनी स्वाधीन और पराधीन स्थितिको समझकर स्वायत्तशासनके लिये लक्ष्यबद्ध होजाता है--सम्बग्दष्टि बन जाता है उसी समयसे उसकी यह जन्ममरण परम्परा भी सौमित हो जाती है । और उस अवधिके अन. न्तर वह उस शिवरूप अवस्थाको अवश्य हो प्राप्त होजाया करता है जो कि जन्ममरण सम्बन्धी आकुलताओं और दुःखों आदिसे सर्वथा रहित है। अतएव आयुकर्म और उसके कार्य तथा तज्जनित पराधीनता आदि दुःखोंके अभावसे प्राप्त होनेवाली परमशान्त स्वाधीनताको प्रकट करने के लिये ही शिवरूप पर्यायका यह अक्षय विशेषण दिया गया है। जन्ममरण की परम्पराकै अभावको कंवल क्षय-मराका ही प्रभाव कहकर वशानेका माशय मरण सम्बन्धी दुःखोंको विशेषता प्रकट करता है। क्योंकि यह अनुभव सिद्ध है कि जीवों को जन्मकी अपेक्षा भरणका ही भय और दुःख अधिक हुआ करता है । सात प्रकारक मयोंमें भी जन्मका नाम न लेकर मरणकार ही नाम लिपा गया है। फिर भी इस क्षय भन्दसे केवल मरणका ही नहीं अपितु जन्म और उसके कारण भूत श्रायुकर्मका भी ग्रहण कर लेना चाहिये। मतलब यह कि इस अवस्थाके सिद्ध होजाने पर यह जीव पुनः कभी भी आयुकर्मका बंध नहीं करता, जन्ममरणके चक्करमें नहीं पड़ता, कर्मनिमित्तक अनुवीचिमरण और तद्भव मरणसे सर्वथा मुक्त होकर सदा-शिवरूपमें ही रहा करता है। आगममें आयुकर्मका कार्य अपने योग्य शरीरमें जीवको रोककर रखना बताया है। किन्तु इसका आश्रय भव और नोकर्म मोहार है । क्योंकि आयुका अर्थ होता है एति १-प्रभचन्द्रीय टीकामें अक्षय शब्दका अर्थ इस प्रकार शिखा है कि अक्षयं न वियते सपानम्चतुष्टयक्षयो यत्र॥ २-इहलोकभय १, परलोकभय २, वेदनामय ३, अत्राणभय ४, अगुप्तिभय ५, मृत्युभय क,भाक स्मिकमम ॥ इनफा विशेष स्वरूप जाननेके लिये देखो पंचाध्यायी अ०२ श्लो०५०४ से २४६। -मामि भविषाई।का । ४-कर्मकांड 51
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy