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________________ ૭ उदय है । क्योंकि शरीर की धातु। उपधातुश्योंकी साम्यावस्थाका ही नाम स्वास्थ्य हैं और उन की विकृति अथवा विषमताको हो व्याधि रोग कहते हैं। स्थिर नामकर्मके उदयसे वे स्थिर रहा करती हैं। और अस्थिर नामकर्म के उदयसे वे विकृत अथवा अस्थिर हुआ करती हैं। लोक व्यवहारमें जातक उत्पन्न हुई व्याथिका मूलकारण सर्वथा निःशेष नहीं हो जाता तबतक वास्तव में नीरोगता नहीं मानी जाती । उसी प्रकार सैद्धान्तिक दृष्टि से तत्वतः विचार करने पर जबतक व्यात्रियोंकी उत्पथिके मूलकारण द्रव्यकर्म और भावकर्म तथा उनके आधारभूत शरीर एवं नोकर्मी संतति सुगंधा निर्मूल नहीं हो जाती तबतक उस जीवको पूर्णरूपेण और अनन्तकाल के लिये नीरोग नहीं कहा जा सकता । शरीरके नीरोग रहते हुए भी रोगोंके अंतरंग कारभूत कमका जबतक स्तित्व है तबतक वह संमारी जीव एकान्ततः नारोग नहीं है। यही बात इस विशेषण के द्वारा दिखाई गई है कि रोगों सम्बन्धी दुःखों एवं श्राकुलताओंसे यह कर्मत्रयशून्य अवस्था सर्वपापरियुक्त है और इसीलिये पूर्णतः शिवरूप हैं। तरकार - भक्षयम् - क्षय शब्द "क्षि"२ धातुसे बनता हैं जिसका कि अर्थ विनाश होता है । जिसका क्षय न हो-जो चयसे रहित हैं, अविनश्वर है उसको कहते हैं- श्रम । यद्यपि इस शब्द के विशेषणरूप होनेके कारण अपने विशेष्य खुवार विभिन्नरूप की वर्ष हो सकते हैं। परन्तु यहाँ पर आत्माकी शिवपर्यायका विशेषण हानेसे उसकी अविनश्वरतारूप विशेषताको यह शब्द बताता है । यह तो सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि एकान्ततः किसी भी द्रव्यका सर्वथा दय -- 1 - निरन्यय विनाश नहीं हुआ करता। क्योंकि द्रव्योंमेंसे किसीका भी निरन्वय विनाश अथवा किसी भी द्रव्यका असदुत्पाद मानने पर कोई त व्यवस्था ही नहीं बन सकती । अतएव उत्पाद और srest निरूपण द्रव्यकी दृष्टिसे नहीं अपितु उसकी अवस्थाओं की अपेक्षासे ही किया गया है। यहां पर भी यही बात है। न तो क्षय शब्दका अर्थ सर्णया अभाव निरन्वय विनाश है और न अपशब्दका अर्थ कूटस्थता ही है। एक अवस्थाकी अपेक्षा क्षय शब्दका प्रयोग है और दूसरी अवस्थाको अपेक्षा अदय शब्दका प्रयोग किया गया है। क्योंकि जीवद्रव्यकी सामान्यतथा दो अवस्थाएं हे एक संकारी और दूसरी मुक्तरं । इनमें से संसारावस्थाकी अपेक्षा य १- रस रकमांस मेद अस्थि और शुक्र ये सात धातु हैं। और बात पित श्लेष्मा सिरा स्नायु बर्म और जठराग्नि ये सात उपधातु हैं। यथा-रसाद्रक' ततो मांसम् मांसान्मेदः प्रवर्तते। दोस्तो म मज्जाच्छुक्र ं ततः प्रजाः ॥ वातः पितं तथा श्लेष्मा शिरा स्नायुश्च धर्म च । जठराग्निरित प्राशैः प्रोक्ताः सप्तोपधातवः । २- भ्वादिगण परस्मैपद अकर्मक मनिट् । ३- सारियो मुकाश्च । ० सू० २०१० ।।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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