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________________ ... .... . ... .-.-. .ruhel रलकरण्डांवकाचार इसतरहकी विनिश्चलता पहा शायिक सम्यक व में ही बताई है । जो कि विचार करनेपर ठीक ही मालुम होती है। क्योंकि सम्यग्दर्शनकी चलायमानता का सीधा सम्बन्ध यदि देखा जाय तो उस के प्रतिपक्षी कर्मों में से किसी भी एक या अनेकके अथवा उनमें से किसी के भी आंशिक उदय से है। सम्यग्दर्शन के तीन भेदामसे क्षायोपशामिक सम्यक्व में तो प्रतिपक्षी कर्मके उदयका सम्बन्ध पाया ही जाता है | और श्रोपशमिक लम्पक्य यधपि नायिकके समान ही स्वरूपात: निर्मल रहा करता है फिर भी वह कालकी श्रत्यल्पता और प्रतिपक्षी कोके अस्तित्व तथा बाय द्रव्यादिके निमितवश ही प्रतिपक्षी कोंके उदय या उदीणा की संभावना के कारण क्षाधिक सम्यक्त्वक समान विनिश्चल नहीं कहा या माना जा सकता । प्रायःकरके तो यह अपने अन्तमुहर्त कालको पूरा करने पहले ही अनन्तानुबन्धी कपायमसे किसी भी एक का उदय पाते ही अपने पद से गिर हो जाता है। फिर भी इस चलायमानता में उन काँके लिये सहकारी एवं सहचारी भाव अज्ञान और दोर्वल्य भी है । क्योंकि अन्तरंग इन भावों के रहने पर प्रतिपक्षी कर्म अपना फार्य डी सरलता और शीघ्रता लिा करने का एक बारतविक विनिमलता जी क्षायिक सम्यक्त्वमें संभव है वह अन्यत्र नहीं और इसी लिये निःशंक्ति अगकी वास्तवमें पूर्णता भी उसी अवस्था में संभव है ऐमा समझना चाहिये । कारिकाके पूर्वार्धम विनिश्चलता के आकारका उल्लेख है । और उस आकारको अत्यन्त - ताको बताने के लिये ही स्वात्माकं ग्रहण और परात्माके त्यागका भाव जिससे व्यक्त होता है इस तर से उसको बताया गया है। जिसका आशय यह है कि तत्व यही जो कि सर्वज्ञ वीतराग आप्त परमेष्ठी तीर्थकर भगवान्न कहा है, सत्य है; अन्य अनाप्त तीर्थकराभास छमस्थ सराग व्यक्तियों का कहा हुभा नहीं। तथा श्री तीथकर भगवान्ने जिस तरहसे जिस अभिप्रायसे जिसरूपमें जिस कारण से जिस लिये कहा है वही सत्य है अन्य प्रकार त अन्य अभिप्रायसे अन्य रूपमें अन्य कारणसे या अन्य फलकेलिये नहीं । मतलब यह कि जिनोक्त तत्व भी यदि अन्य प्रकार आदि से कहाजाय तो वह सत्य या प्रमाणभूत नहीं, तथा अन्योंका प्ररूपित नव यदि जिनोक्त प्रकार भादि से कहा जाय तो वह भी सस्य, प्रमाणभूत और आदरणीय, आचरणीय नहीं है । जिनेन्द्र भगवानन जिसका उपदेश दिया है तत्व वहीं सत्य है और यही मान्य है एवं पादरणीय है। साथ ही जिस ताह से उन्होन कहा है उसी तरहसे प्रमाण है उसी तरहसे हितकर है और उसी तरहसे पालनीय है । इस तरहकी विनिश्चला जिसमें पाई जाती है वही श्रद्धा निःशंक माननी चाहिये । सम्यग्दशन में इस तरह की दृढताका रहना ही उसका पहला निःशंकित अंग है। तच और सन्मार्ग के विषयमें जब इतनी अकम्प और निःसन्देह श्रद्धा हुभा करती है तब अवश्य ही उसमें उसी प्रमाणमें निर्मलता भी रहे यह स्वाभाविक है । अत एव प्रकप्पतामा बर्ष ५-फर भी अपने अन्तर्मुहूर्त कालम क्षायिक समानही पूर्ण निमल रहनसे श्रीपशामक सम्यक्त्व भी उसी प्रकार अकम्प माना है । अतः झाधिकका मुख्या तथा उपलक्षण मानकर बीपशामक को भी उसी प्रकार समझना चाहिये।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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