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________________ - - -. . भाद्रका टीका ग्यारहवा मोक आयससे मतलप तलवार ही नहीं किंतु लोहेकी बनी हुई ऐसी किसी भी चीनसे जिसपर कि विशेषप्रकारसे पानी चढ़ायागया हो। फिर चाहे वह तलवार हो या छुरी चाक् कटार इंसिया पादिमें कुछ भी हो। इस दृष्टान्तस अभिप्राय तो इतना ही भूचित करनेका है कि जिस प्रकार वलवार आदि में चढाया हुआ पानी पर्याप्त चमकना है-चलचलाता है, जिससे ऐसा मालुम भी होता है कि वह चलायमान हो रहा है, परन्तु वह अपने स्थानसे रंचमात्र भी चलायमान नहीं होता। वह तो जहां जिसप्रमाण में जैसा भी है वहां उसी प्रमाणमें और वैसा ही रहा करता है और वह अपना तेजी एवं शीघ्रताके साथ ठीकर कामभी किया ही करता है । सम्यग्दर्शन की यह निःशंकता ही सब से प्रथम अपने कार्यकी साधिका है, जैसा कि अंजन चोरके दृष्टान्तसे स्पष्ट होता है। निःशंक सम्यग्दर्शन ही संसार और उसके कारणोंका उच्छेदक हो सकता है। यदि श्रद्धा में कुछभी शंका बनी हुई है वो फिर चाहे कितना ही तरज्ञान क्यों न हो उससे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता १ । यही बात इस अंगकी कथामें आये हुए माली की मनोति से सूचित होती है। अत एव तत्वज्ञान और सन्मार्ग-रसत्रयरूप मोल मार्ग के विपयकी श्रद्धा अफम्मता का रहना ही निःशंका है और वही सम्यग्दर्शन गुणवा सबसे पहला अंग है । जोकि कर्मशत्रुओं के छेदन में सम्यग्दर्शन रूपी तीक्ष्ण खनके लिये रख दक्षिणभुजाका काम किया करता है क्योंकि मोथरी तलवार और पिना दृहताके साय छोडे वह यथेष्ट काम नहीं कर सकती। ___ तात्पर्य-शंका मुख्यतया दो प्रकारको हुमा करती है; एक तो अज्ञान मूलफ और सरी दौर्वन्य मुलक । चलिताचलित प्रतीतिरूप संदेहको भी शंका कहते हैं और शंकाका अर्थ भयर मी होता है जिस में कि एक कारण दुर्पलता या मशक्ति है। जैसा कि भयसंज्ञाका सारूप पसात हर उसके चार कारणों में से एक "भीमसचीए३ " कहनेसे मालम होता है। भागममें कहा है कि रूपैर्मर्यकरैक्पिह तुधान्तमुचिभिः। ___ जातु नापिकसम्यस्त्वो न धुम्पति मिनिरचलः ।। मतलब यह कि वापिक सम्यग्दृष्टी जीव इतना अधिक निश्चल भकम्प हुशा करता है कि पह कैसे भी भयंकर रूपको देख कर अथवा भनेक हेतु और दृष्टान्तोंसे अतस्वको पचित करनेवाले वाक्योंके द्वारा कदाचित् भी चलायमान नहीं होता। सष्ट ही इस कथनमें श्रद्धाको चलायमानता के लिये दो कारण यतायेगये हैं। जिनमें से एक का सम्बन्थ दुर्बलता से और मरेका सम्बन्ध प्रज्ञानस है। साथ ही यह बात भी स्पष्ट है कि १–तत्व हात रिपो रष्ट पात्रे च समुपस्थिते । यस्य वोलायस पर्श क्ति सोऽमुत्र ह ५॥ एकस्मिन मनसः कोणे पुसामुत्साहशालनाम् । अनायासेन समापात भुवनानि चतुर्दश ।। यशस्ति । २-शंका भीः साध्वसं भीतिः।। पंचा। ३–अयिभीमसणेणय तस्सुपजोगेण प्रोमसत्तीए । भयकम्मुदीरणाए भयमण्णा आयने पहिः।। जीका । |
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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