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________________ I ૨૦. चन्द्रिका टीका तेसर्वा श्लोक मोक्षका साधन चारित्र के द्वारा - ज्ञानपूर्वक चारित्रके द्वारा हुआ करता है फिर भी इन दोनों की स्थिति सम्यग्दर्शन पर ही हैं। इसके बिना जिस तरह विना नींव का कोई मकान आकाश में खड़ा नहीं रह सकता, अथवा विना जड़के वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता, निवर्य मानव संतान जीवित नहीं रह सकती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनसे रहित ज्ञान चारित्र भी मोक्षमार्ग में खड़े नहीं रह सकते और न अनन्त कालकेलिये अपने स्वाभाविक और पूर्ण ज्ञानानन्दस्वरूप में आत्मा की स्थितिको उत्पन्न करने तथा बनाये रखने में समर्थ ही हो सकते हैं। वे केवल रागी अज्ञानी जीवोंको अभीष्ट किसी प्रकारकी लौकिक सामग्रीकी ही किसी एक सीमा तक ही उत्पन्न करने में समर्थ हो सकते हैं। आगम प्राचीनाचार्योंके द्वारा भी यही बात कही गई है। उमास्वामी भगवान् ने भी श्रतों का वर्णन करने का है कि उस अवस्थामें मोक्षमार्ग - मोचके असाधारण साधन हो सकते हैं जब कि वे निःशल्य हों । शन्य से अभिप्राय भाया मिथ्या निदान रूप मोहके तीन विभाव परिणामोंसे हैं। जो कि मिथ्यात्वादि प्रथम तीन गुणस्थानों में ही सम्भव हैं। अतएव निःशन्यका अर्थ सम्यग्दर्शन हो उचित हैं, फिर चाहे वह सम्यक्त्व प्रकृति के उदयसे संयुक्त ही क्यों न हो । तत्र जो बात अन्य आचार्य कहते आये हैं वही बात यहां भी ग्रन्थकी इस कारिकाके द्वारा कही गई है । प्रश्न- तीनों शल्योंका सम्भव प्रथम तीन गुणस्थानोंमें ही कहा, यह किस तरह माना वा सकता है ? प्रतिप्रश्न क्यों नहीं माना जा सकता ? उत्तर—- क्योंकि यह कथन श्रागमके विरुद्ध हैं । प्रतिप्रश्न - वह कौनसा आगमका वाक्य है. जिससे कि हमारा यह कथन विरुद्ध पड़ता है ? उत्तर -- श्रमममें आर्तध्यानके चार भेद बतायें हैं। उनमें निदानको छोड़कर बाकी atri at श्रार्तध्यान छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थानतक पाये जाते हैं। और निदान नामका जो एक आर्तध्यान है यह पांचवे गुणस्थान तक ही पाया जाता है। इससे निदानका सम्यग्दर्शन के साथ भी अस्तित्व सिद्ध होजाता है । समाधान - ठीक है । परन्तु राज्य और श्रार्त ध्यानमें अन्तर हैं। आर्तध्यान मोहसहित और मोहरहित दोनों ही अवस्थाओंमें पाया जाता है और वह यथायोग्य कषाय विशेष के उदय की अपेक्षा रखता है। किन्तु शक्य मोहसहित अवस्था में ही संभव है । मतलब यह है कि था वो जो जीव मिध्यात्वसहित हैं उसी के शल्यरूप परिणाम हुआ करते हैं; अथवा तीन प्रकreat शस्योंमें से किसी भी शल्यरूप परिणामके होने पर सम्यक्त्व से जीव व्युत हो
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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