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________________ ११७ पद्रिका टीका तेरहवां श्लोक पर यह शरीरका विशेषण है । इसका आशय यह है कि यद्यपि आत्मा ही रखत्रयसे वास्तव में पवित्रित है फिर भी रखत्रयपवित्रित आत्मासे अध्युपित रहनेके कारण व्यवहारसे शरीरको भी रत्नत्रयपवित्रित कहा जा सकता है। प्रश्न-आत्मा रत्नत्रयसे जिसका पचित्रित नहीं है और द्रव्यतः जिनका शरीर जिनलिंगमे युक्त है, अर्थात् जो द्रव्यलिंगी हैं उनको या उनके शरीरको भी "रनत्रयपविधित" कहा जा सकता है क्या ?:और अपने सम्यग्दर्शनको निविचिकित्सा गुणसे युक्त रखनेवाले सुमुधु को ऐसे साधुओके प्रति व्यवहार किस तरहका करना चाहिये ? उच्चर-व्यवहार बाह्य द्रव्य पर्यायाश्रित है और वह निश्चय का विरोधी नहीं है । बल्कि निश्चयका साधक है। साथ ही छमस्थ जीवोंको प्रात्मधर्म के प्रत्यक्ष जानने का साधन नहीं है। फिर जब वह साधु भावलिंगी मुनिके ही समान सम्पूर्ण व्यवहार कर रहा है व्रत आवश्यक मादि गुणोंका यथावत् पालन कर रहा है, तव अन्य सागार एवं अनगारोंको भी उसके प्रति भावमुनिके ही ममान व्यवहार न करनेका कोई कारण नहीं हैं। प्रत्युतः अपने पदके अनुसार कर्तव्यका पालन न करने पर अपराधी अथवा कर्नव्यच्युन माना जा सकता है । निश्चय साध्य है और व्यवहार माधन है। साधनके प्रसङ्ग में उसी को मुख्य मानकर उसके अनुकूल व्यवहार करना ही उचित है। अत एवं जो द्ध्यलिङ्गी रत्नत्रय का माधन कर रहा है उसके उग गुणके प्रति भी सम्यग्दृष्टीको प्रीति होनी ही चाहिये । निर्दोष जिनमुद्रा का विनय सम्यग्दष्टि न करे यह संभव नहीं है ऐसा करने पर ही उसका निर्विचिकित्सा अंग सुरक्षित रह सकता है। निर्जुगुष्मा-जुगुप्सा का अर्थ ग्लानि है । निजुगुप्सा यह गुणनीतिका विशेषण है । माधु का शरीर रत्नत्रयसे पवित्र है । और सम्यग्दृष्टि गुणग्राही एवं गुणोंका समादर करनेवाला हुआ करता है। अत एव उसकी दृष्टि गुणों की तरफ रहा करती है । वह स्वाभाविक अशुचि शरीरके प्रति ग्लानि कर रखत्ररूपगुणों के प्रति उपेक्षा कर अविवेकद्वारा कर्तव्यसे च्युन हो अपनीहानि सम्यग्दर्शन को अंगहीन अथवा मलिन बना नहीं कर सकता। ___ तात्पर्य यह है कि इस कारिका में सम्यग्दर्शन के जिस अंग अथवा गुणका दिग्दर्शन कराया मया है उसका सम्बन्ध गुरु श्रथवा तपोभृत् से है । श्रद्धान के विषयों में से प्राप्त भौर भागमके सम्बन्ध को लेकर जिसतरह क्रमसे पहले और दूसरे अगका वर्णन किया गया है उसीप्रकार यह गुरु के सम्बन्ध को लेकर सम्यग्दर्शनका तीसरा अंग बताया गया है । इसके लिये अधिक स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। कारिकाकै पूर्वार्धमें शरीर के दो विशेषख जो दिये है वे गुरु में ही सम्भव है। पूर्वार्धमें वर्णित दो विशेषणोंको लेकर उत्तरार्ध में बतायागया है कि सम्पटिका भाव-ऐसी अवस्थामें किसतरहका हुआ करता था किस तरहका रहा करता है। बतायागया है कि शरीर तो सभीका स्वभाव से ही अशुचि है परन्तु यदि इस शरीर से आत्मा का हित मिड करलिया जाता है तो मनुष्य जन्म और इस शरीर का प्राप्त करना सार्थक एवं सफल होजाता है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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