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________________ रस्नकरएडभावकाचार सम्बन्धको जो प्राप्त कर लेती हैं ये पवित्र भी वस्तुएं अशुचि बन जाती हैं। धातु* उपधातु या मल उपमलके रूपमें परिणत होजाती हैं । वर्तमानमें यह शरीर हड्डी चमडा मांस रक्त मल मुत्र आदि जिन२ के मधुपयरूप है वे भी सब अशुचि ही हैं। अतएव स्वभावसे ही यह अशुचि है। जिसकी उत्पत्ति असदाचारसे हैं भ्रष्ट, है जो स्वयं असदाचारी है जिसकी संतान भी असदाचारसे उत्पन्न हो उस गति के शारीरिक व्यागारों सभी चीनमा मानका कारण ही क्या रह जाता है ? इसी तरह शरीरकी अशुचिताकै सम्बन्धमें समझना चाहिए । ध्यान रहे यह अशुचिता स्वभावतः कहकर नैसगिक एवं स्वाभाविक बताई है। जिससे यह अभिप्राय भी निष्पन्न हो जाता है कि अशुचिता स्वाभाविक भी हुआ करती है। जो कि यहां ग्रन्थकार को बताना अभीष्ट नहीं है। यहां तो शरीरके उपादान, भूलस्वरूप और कार्यके सम्बन्धको लेकर जो अशुचिता पाई जाती है केवल उसीका यताना अभीष्ट है। मलोत्मर्ग: छाशुचि द्रव्य अथवा अस्पृश्य स्त्री पुरुष पशु पक्षी आदिके स्पादि सम्बन्ध से जो अशुद्धि होती है उसका बताना यहां अभीष्ट नहीं है। क्योंकि प्रथम तो अशुचिता और अशुद्धि अथवा पवित्रता और शुद्धि एक चीज नहीं है दोनों शब्द एकार्थक या पर्यायवाचक नहीं है। शुद्धि और पवित्रतामें स्वरूप विषय कारग और फल आदिकी अपेक्षा जिस तरह महान अन्तर हे उसी तरह 'शुचिता और अशुद्धिमें भी अत्यन्त भिन्नता है। दूसरी बात यह कि श्रागममें इन तान्कालिक अशुद्धियों को दूर करने का जो विधान है तदनुसार उनका निहरण होजाया करता है। वास्तविक मुमुतु साधु उचित उपायोंके द्वारा विधिपूर्वक उन अशुद्धियोंको उसी समय दूर करलिया करते हैं । शरीरकी द्रव्यपर्यायाश्रित जो अशुद्धि है उसका न तो कोई शुद्धि विधान ही है और न वैसा शक्य एवं संभव ही है। जहाँखक अयोग्य पिंडोत्पत्तिका सम्बन्ध है वहांतक उस शरीर को भी आगमगे दीक्षाके अयोग्य ही बताया है। फलतः शरीरकी प्राकृतिक अशुचिताके सम्बन्धको लेकर ही वर्णन करना उचित समझकर प्राचार्यने कहा है कि वह तो स्वभावसे ही अशुचि है। रलत्रयावित्रित-रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचरित्र श्रात्माके धर्म है । अतएव वास्तवमें श्रात्मा ही उनसे युक्त रहने के कारण पवित्रित कहा जा सकता है। किंतु यहाँ *-वात पित कर्फ ये तीन अथवा रस रक्त माम मेदा अस्थि मज्जा और शुक्र ये सात धातु कहाती है। ५--मलमूत्रादिका त्याग मलमूत्र मद्यमांम अस्थि चर्म शब श्रादि द्रव्य, रजस्वला आदि स्त्री अस्पृश्य शुद्र आदि पुरुष गधा सूचर आदि पशु काक गृद्ध आदि पक्षी। २- इसके लिये देखो प्रायश्चितशास्त्र ........."तथा यशस्तिलक "मंगे कापालिकात्रेयीचाचालशवरादिभिः वाप्लुल्य दण्वन स्नायाज्जपेन्मन्त्रमुपोषितः । ३--जायोग्यामनायो वर्ण : सुदेशकुलजात्यंग इत्यादि !
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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