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________________ रस्नकरण्डनावकाचार किये गये संस्कार और पालन किये जानेवाले आचरणों के निमिवसे वह सबमें पूज्य एवं प्रधान है। अतएव वह मानवतिलक है। दर्शनपूता:-इसका दो तरहसे अर्थ किया जा सकता है। दर्शन पूर्त येषाम् । अथवा दर्शनेन पूनाः। अर्थात् जिनका सम्यग्दर्शन अतिक्रम व्यतिक्रम प्रतीचार अनाचार दोषोंसे रहित है, अथवा इस तरहके मानस आदि अशुद्धियोंसे रिक्त सम्यक्त्वक सम्बन्थसे जो पवित्र हैं। दोनों अर्थोमें खास विशेषता नहीं है। जो कुछ हो सकती है वह पहले बताई जा चुकी है। तात्पर्य-ऊपर शब्दोंका जो पर्थ एवं आशय लिखा गया है उससे कारिकाका सास्वयं सब समझमें आ सकता है, अतएव विशेष लिखनेको भावश्यकता नहीं है। फिर भी मंक्षेपमें थोडामा स्पष्ट करना उचित प्रतीत होता है। यहां पर जिन सोन परमस्थानोंकानाम पताया गया है यद्यपि वे तीनों ही परमस्थान मिथ्याष्टिको भी प्राप्त हुमा करते हैं, फिर भी दोनोंक स्थानोंमें असाधारण एवं महत्वपूर्ण जो अन्तर पाया जाता है उसीको दृष्टि में रखकर उसके ओज श्रादि विषयोका उन्लेख करते हुए सम्गग्दर्शनके फल विशेषको यहाँ स्पष्ट कर दिया गया है। यह बात समझमें आने योग्य है कि स्वामीके भेद अथवा सहचारी गुथोक मेद के कारण किन्हीं भी गुणधर्म स्वभावोंके स्वरूप एवं फख में भी स्वभावतः अन्तर पाया जाय । जो शक्ति दर्जनको प्रास है वही यदि सज्जनको भी प्राप्त है तो यह स्वाभाविक है कि एक जगह उसका दुरुपयोग हो और दूसरी जगह उमीका सदुपयोगर हो। यही रात मिथ्यारप्टि और सम्य. दृष्टिके इन स्थानोंके विषयमें समझना चाहिये । दूसरी बात यह भी है कि जिन पुपर कमोड उदय आदिके निमित्तसे ये भोज आदि गुण प्राप्त हुआ करते है वे पदि मिथ्यात्वसहनारी मन्द कषायके निमित्तसे संचित हुए हैं अथवा सम्यक्त्वसहचारी विशिष्ट शुभ भाषों या कपंचित विशद्ध परिणामोंके द्वारा भर्जित हुए है तो समानतः उनके स्थिति अनुभाग भादिमें सामान्य विशेषता तथा जात्यन्तरता पाय बिना नहीं रह सकती । इसके सिवाय एक बात पर मी सम्परहष्टि जिस तरह मुल्यतया द्रष्यष्टि और इसीलिये जिस प्रकार निःशंक एवं निर्भय रक्ष करता है वैसा मिथ्यादृष्टि नहीं। क्योंकि वह पर्यायदृष्टि रहने के कारणा अथवा पर पदार्थ-- मावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म आदिसे मिष दृष्टिवाला न रहनेके कारण सदा सशंक एवं मयार ही रहा करता है । फलतः उसके ग्वेज और उसके साथ ही साहस धैर्य भादि गुख सम्पटिसे निकृष्ट ही रह सकते हैं । प्रथमानुयोगमें सम्पन्दृष्टि मम्प स्त्रिों क्या पुरुषों की अनेक बलिर १-- सम्यक्त्वात्सुतिः प्रोका, जानात्कोतिहदाहृता । वृत्तापूजामवाप्नोति, याच लभते शिवम् ॥ ०शि० तथा-एवं विहागजुत्ते मूलगुणे पालिऊण तिविहेन । हाऊण जगदिपुज्जो अक्सयसोक्खं लहइ मोनस ।। मूलाधार-10 २--विद्या विवादाय धन भदाय शक्तिः परेषा परिपीनाय | बलस्य, साधीपिंपरीतमेदालाप दानाप प रणाय ॥ लोकोक्कि!
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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