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________________ पन्द्रिका नौका तीनको मनोन प्रयायें इस विषयका समर्थन कर सकती हैं कि-अनेक अनन्त भयंकर आपतियों परिषहों उपसों भादिक मानेपर भी वे सम्यग्दृष्टि भव्य कायर नहीं हुए और अनेक आज-साधिक मात्मपलके प्रभावसे उन पर विजय पाकर असाधारण सफलता-देवों द्वारा भी पूज्यता बादिको पासके सम्यग्दृष्टिका मोज या प्रारमबल इतना अधिक हुआ करता है कि वह मरणके समय अथवा स्वर्ग विभूतिके छूट पर भी व्यग्र नहीं हुया करता । साक्षात् नरको अथवा नरक जैसी वेदनामों के प्रसङ्गमें भी घबराता नहीं है। चक्रवर्तीके राज्यके बदले में भी तत्वप्रवीतिमें परिवर्तन नहीं किया करता। यह बात भी यहां पर ध्यान रखनी चाहिये कि इस कारिका में श्रीज आदि जिन आठ विषयोंका नाम निर्देश किया गया है वे उपलनणमात्र है, अतएव इसी प्रकारके अन्य भी गुणों का संग्रह कर लेना चाहिये । अथवा सम्बन्धित अवान्तर भेदरूप विविध भावों का इन आठ भेदोंमें ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिये । जैसाकि साहस धैर्य उद्यम ये प्रोजमें ही अन्तर्भूत हो सकते है। शरीरका सौन्दर्य सौभाग्य प्रादेयता आदिके साथ पुण्यबल तथा यह प्रभाव जिसके कि कारण पाहुबलीके समष भरतके दूतकी तरह, चक्रेश्वरीके सामने कालीकी तरह, भट्टाकलंकके सम्मुख तारा देवी और रामचन्द्र के सामने अनेक देव विद्याधर श्रादि राजाप्रोकी तरह सामने. आनेवाले अनेकों भी महान व्यक्ति प्रभावित हो जाया करते हैं, यह सर अन्तरंग बहिरंग महिमा तेजमें अन्तर्भूत हो सकती है। प्रतिभा, ग्रहण, थारण. ऊहापोहरूप तर्कशक्ति, विकशीला, तत्त्व परीक्षकता, भादि बौद्धिक प्रकार एवं पज्ञानिक योग्यता तथा विभिन्न कलाओंकी पारताके भेद विद्याशन्दसे गृहीत किये जा सकते हैं। पराक्रम कृषि आदि वीर्यगणोंके ही परिणाम है । यश शन्द कौतिके कारणभूत दाक्षिण्य, औदार्य; दया, परोपकारपरता, श्री.चत्य, दान, सन्मानपदान, न्यायप्रियता, गुणग्राहकता, कृतज्ञता सौजन्य आदिका बोध करा सकता है। इसी प्रकार पद्धि विजय भोर विभव समाधमें भी समझ लेना चाहिरी । इनके द्वारा भी पुरागविशेषका परिचय मिलता है । यद्यपि यह ठीक है कि सम्माष्ट और मिथ्या दृष्टिक पुण्यमें जो सातिशपता और निरतिशयताका अन्तर पाया जाता है वह सर्व साधारणको दृष्टिका प्रायः विषय नहीं हुआ करता फिर भी यह विशेष परीक्षकोंके सूरमेचिकाको गोचर तो हो सकता है। और वह इस कारिकामें उक्त सज्जातिस्त्र सद्गृहित तथा पारिवाज्य इन तीनों ही परमस्थानों में भी यथा योग्य जाना या समझा जा सकता है। गुण-धर्म-स्वभाव यों तो अनन्त हैं और उनके प्रकार भी अनेक तरहसे किये जा सकते हैं फिर भी प्रकृतमें उन गुणधर्मस्वभावोंको अन्तरंग-बदिरंगके भेदसे अथवा साविक-आध्यासिक और शारीरिक-भौतिक भेदसे यद्वा सहज-नैसर्गिक और भागन्तुक-शिक्षासंगति प्रादिसे उत्पन्नके मेदसे दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता है। और उन सभीको यहां पर यषायोग्य समझ लेना चाहिये और सम्यक्त्व तथा मिथ्यासके निमिचसे उनमें जो विशेषता माती है-परसरमें अन्दर पड़ता है उसकी भी दृष्टिमें ले लेना चाहिये। ऐसा करनेपर इस सारित
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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