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________________ रस्नकरावकाचार का व्यापक एवं महत्वपूर्ण प्राशय लक्ष्यमें आ सकेगा ! किन्हीं भी गणधर्म या पर्यायाधित भावों में निमिच भेदके अनुसार अन्तरका पड़ना स्वाभाविक है। अतस्व सम्यक्त्व या मिथ्यास्वरूप अन्तरङ्ग परिणामोंके साहचर्य भेदके कारण ओज टिमें श्री अन्तर रहता है यह यात सहज ही समझमें आने योग्य है । यह अन्तर चमड़ेकी आंखसि दिखाई पड़नेवाला भले ही. हो परन्तु बुदिगम्प अवश्य है। यह बात आगेकं दृष्टान्तोंसे ही स्पष्ट हो सकेगी। कर्मों के उपशम भय क्षयोपशमसे प्रकट होनेवाले अात्मा मुणों या भावोंको अन्तरस्ट्र तथा उनके उदय से होनेवाले गुणधौंको बाझ समझना चाहिये। मौदधिक गणधर्म भी दो वरहके हो सकते है-जीपाश्रित तथा शरीराश्रित । आत्मासे जिनका संबंध है फिर चाहे वे औपशमिक क्षायिक पायर्यापशमिक हो चाहे जीवविपाकी कर्मो उदयसे होनेवाले हों वे सब साविक हैं। सत्यभाषण, निर्लोभताउदारता या पवित्र आचार, सहनशीलता, दान बुद्धिमत्ता-तत्व ग्रहण शक्ति या विवेकपूर्णन अथवा विचारशीलता, उत्साह, दयाभाव, इन्द्रियविजय, प्रशम-कपायोंगा अनुद्रेक, एवं चिनप प्रभृति सब सात्त्विक गण माने गये हैं। तथा शरीरसे जिनका सम्बंध है ऐसे सौन्दर्स कांति दीत लावण्य प्रियवाक्यता कलाकोशल आदि सव शारीरिकगुण हैं । कोई-कोई गुण सम्य भेदके कारण साचिक एवं शारीरिक दोनों तरहका भी मान लिया जाता है। जैसे कि बल: । अस्थियोंके बंधन विशेप और उनके रहताक सबंधकी अपेक्षा लेनेपर यही बल शारीरिक और उत्साह घय साहस आदि मानसिक भावाकै सम्बन्धकी अपेक्षा लिये जानेपर सोविक कहा जा सकता है। जिन गुणोंमें शिक्षा संगति अभ्यास या संस्कारोंके आधानादि राह्य निमित्ताशी मुख्यतया अपेक्षा हुभ्रा करती है उनको आगन्तुक और जिनमें उनकी अपेक्षा नहीं होती वे सब सहज अथवा नेताकि कहे जाते हैं । भोगभूमिजों में जो गुण पाये जाते हैं वे प्रायः नैसर्गिकर ही रहा करते हैं । कर्मभूमिमें भी कहीं कहीर नर्गिक गुण पाये जाते है जस कि तीर्थकहमें जन्मसिद्ध सहज दश तिशय । इन सभी गुणों में सम्यक्त्व एवं मध्यात्व के निमिच-साहचर्य भेदके कारण जो एम तथा अपूर्व विशिष्ट अन्तर पाया जाता है वह प्रत्यक्ष अनुमान अथवा आगमके द्वारा जाना जा सकता है। फलतः सम्यग्दृष्टिको और मिथ्यादृष्टि को दोनोंको ही प्राप्त होनेवाले सज्जासिल - -समागतयवास्य वर्गित यलमागिक । सात्त्विक तु चल ना निगदिग्विजयादिभिः ॥२१०॥ आदि. *-महासस्था महाधैर्या महोरस्का महौजसः । महानुभावास्ते सर्वे महीयन्ते महोदयाः ।। बार ३-२५ ॥ म्यभावमुन्दरं रूप स्वभावमधुरं वचः । स्वभावचतुरा चेष्टा तेषां स्वर्गजुधामिव ||३४|| स्वभाव गाईबायोगवक्रतादिगुणैर्युताः । भद्रका दिवं सान्नि तेषां नान्या गतिस्ततः ॥४॥ १-देखो आदि पुराण ४-१५४, तथा ६-४६ तथा १५-२८ । पुराण १५
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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