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________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार है फिर भी स्पष्ट प्रतिपत्तिक लिये संक्षेपमें यहां लिख दिया जाता है । चिन्ता-दष्ट या अनिए विषयमें प्राप्ति या वियोगले सम्बन्धको लेकर बार बार व्याप्त होना अथवा शोचा करना, अतिनिचका न लगना, निद्रा-स्थाप-सोना, विस्मय आश्चर्य, विषाद-खिन्नता शोक संक्लेश या चित्र में घबडाहट, खेद थकावट या कमजोरी स्वेद पसीना। शब्दांका सामान्य विशेष अथ शब्दोंका अर्थ ऊपर प्रायः सब लिखा जा चुका है। अतएव सामान्य अथके विषयमें अब यहां लिखनेकी कोई अावश्यकता नहीं है किन्तु हम अपनी समझके अनुसार यहां इन दोषों के विषयमें कुछ अपने विनारों या अनुभवको भी स्पष्ट करदेना चाहते हैं। पाठक देखेंगे कि इस कारिकाके पूर्वाध ग्राट और उत्तरार्थके तृतीय चरणमें तीन इस रारह ग्यारह दोषाक नाम कण्ठोस है-अन्धवर्ता प्राचार्यने उनका स्पष्ट नामोल्लेख किया है। चोकी रहे सात दायोके नाम सो "च" शब्दसे सूचित किये है जैसा कि ऊपर लिसा जा चुका है। इन सभी दोषोंका प्रसिद्ध अर्थ जो कुछ है वह सभी ऊपर बताया जा चुका है। किन्तु विचारणीय बात यह है कि ऐया ग्रन्थकारने क्यों किया ? इसके उत्तरमें हमारी जो समझ है वह यहां इम लिख देना उचित समझने हैं जिससे कि विद्वान् पाठकोंको विचार करनेका अवसर प्राप्त हो । हमारी समझसे पूर्वाधम जिन आठ दोषांका नाम गिनाया है उनका सम्बन्ध मुख्यतया अधाति कमों से है । यथा क्षत पिपासा ये दी दोप वेदनीयसे, जरा और प्रान्तक नाम कर्मसे. जन्म और अन्तका भरण श्रायु कर्मस तथा भय और स्मय गोत्र कमसे सम्बन्धित हैं । इसीप्रकार उत्तरार्धम गिनाये गये तीन दाप राग द्वेप और मोह तथा "च" शब्दसे सूचित किये गये सात दोषोंका सम्बन्ध पाति समास है । राग द्वपमोहका सम्बन्ध मोहनीय कर्मसे स्पष्ट ही है । इनके सिवाय चिन्ता और पाश्चयका समन्ध ज्ञानाचरणसे, निद्राका दर्शनावरणसे शोक और परति का सम्बन्ध मोहनीयसे और स्वेद तथा खेदका सम्बन्ध अन्तराय-वीपान्तरायकमसे है। ... प्रश्न--- न पिपासा वेदनीयजन्य, जरा और अातंक नामकर्म निमित्तक, तथा जन्म और अन्तक आयुकर्म सम्बन्धित है, यह बात तो प्रतीतमें आती है। किन्तु भय और समय गोत्रकर्मस सम्बन्धित बताय सो यह समझमें नहीं आया ? श्रापन भी ऊपर इसी श्लोकका अर्थ करते हुए जो लिखा है उसमें भी स्पष्ट है कि ये दोनों ही दोष मोइकर्मसे सम्बन्धित हैं। फिर याप यहां इनको गोत्रकर्मस सम्बन्धित किस तरह बताते हैं? उत्तर----ठीक है। हमने उपर इन दोनों दोषोंको मोह लिमिसक अवश्य ही बताया है। प्राचीन टीकाकर्ता श्री प्रभाचन्द्रने जो कुछ अर्थ लिखा है उसी के आधार पर हमने भी वह अर्थ लिखा है और यह सर्वथा सत्य है । परन्तु इस विषयमें कुछ विचारणीय बात भी है। प्रश्न- इसमें विचारणीय बात क्या है ? श्रापका कथन मनमाना है. पर्वाचार्योक यदि विरुद्ध है तो प्रमाण किस तरह माना जा सकता है?
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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