SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पद्रिका टीका छठा लोक उत्तर--सर्वथा सत्य है । पूर्वाचायक विरुद्ध इमारा कोई भी कथन प्रमाणभूस नहीं माना जा सकता। परन्तु विरुद्ध हो तब न ? प्रश्न विरुद्ध किस तरह नहीं है ? उत्तर-- इस तरह 1 कारण यह कि इन आठ दोपोंमें से दो दोका एक २ अघातिकम विशिष्ट कारण है। और आठोंका ही सामान्य कारण मोहनीय है। जहां तक मोहनीप कर्मके उदयका सम्बन्ध है वहांतक वेदनीयादिक कर्मो के उदय प्रथवा उदीरणाका कार्यभी एक विशिष्ट प्रकारका हुआ करता है जिससे कि नधीन कर्म बन्धमें भी अन्तर पठजाता है मोहनीयक उदय का सम्बन्ध हट जाने पर इन कर्मोके उदयका कायभी उस तरहका नहीं हुआ करता । मोहनीयको अधातिकों के फलदानमें जो सामान्य कारण कहा है सो इस विषयमे भी यह ध्यानमें लेना चाहिये कि इस सामान्य कारणाके मारा भी इसमें जो अनार पहा १६६५ समान नहीं है। चारों ही अधातिय मोंके इन कार्यो मोहक निमितसे जो अन्तर पड़ता है वह सर्वत्र एक प्रकारका न होकर भिन्न २ प्रकारका ही है । खुत् पिपासाके लिये मोहकर्मोदय जनित माय वेदनीयको उदीरणामें कारण है। जरा और प्रतिकाय लिये नामकर्मके भेद अस्थिर प्रकृतिक उदय उदीरणामें निमित है। जन्ममरणके लिये नवीन आयुकमक बन्धम कारणई । स्पेकि जन्मसे यहां श्राशय नवीन श्रायुका बन्ध होकर उसके उदयजनिस भावसे है। नकि वर्तमान पर्यायकी उडमिसे जो कि हो चुकी। इसी तरह मरणसे मतलब वर्तमान शरीरके वियोगसे नहीं अपितु नवीन बायके उदय और भुज्यमान श्रायु सत्त्वके अभावसे है । इसी तरह जरा और आतंक-रोग जो हुआ करता है वह अस्थिर प्रकृतिके उदयसे वर्तमान शरीरकी धातु धातुओंके स्थानसे विचलित हो जाने पर अथा स्वभावके विकृत हो जानेसे हुआ करता है उसीसे यहां प्रयोजन है। इसी तरह भय और स्मयके रिफ्यमें भी समझना चाहिये । जिसका तात्पर्य यह है कि गोत्रकर्मके दो भेद है। एक उच्च और दूसरा नीच । जिसके उदयसे लोकपूजित कुल में जीव जन्म थारण करें उसको उच्चगोत्रकर्म और जिसके उदयसे लोकगहित कुल में जीव जन्म धारण करें उसको नीचगोत्रकर्म कहते हैं। नीचगोत्रमें उत्पन्न हुमा जीव महायत धारण नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी अन्तरंग मनोवल आदिकी तथा बहिरंग शारीरिक बल आदिकी दुर्बलताएं उसमें जिसतरह की कापरता पैदा किया करती हैं उनके कारण उसके प्रत्याख्यानावरण कर्मका क्षयोपश्म नहीं होने पाता नहीं हो सकता इस तरहकी कायरता एवं कायरताके कारण वह जीव हमेशा भयातुर रहा करता है और माना जाता है। मतलब यह कि नीचगोत्रकमेके उदयसे प्राप्त हुई जीवकी अस्था उसके भय कपायके तीव्रउदय एवं उदीरणामें नोकर्मका कार्य किया करती है जिस तरह भयसंज्ञामें १-क्योंकि गोत्रकर्म जीवविपाकी है । अतए इसके उदयका कार्य जीषके परिणाम रूप अवाथा में ही माना जा सकता है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy