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नया मीका पाजामौक है अतएव पुनः उल्लेख की आवश्यकता नहीं है ।
प्राप्तका लक्षण इस तरह का भी प्रसिद्ध है कि “यो यत्रावंचकः स तत्र आप्तः" । अर्थात् जो जिस विषयमें प्रवञ्चक है वह उस विषय में प्राप्त है । जैसा कि पहले भी लिखा जा चुका है। किंतु इस विषय में विचारणीय बात यह है कि कञ्चना ज्ञान पूर्वक या उन्देश पूर्वक ही हो ऐसा नियम नहीं है। संभव है-हो सकता है कि किसीकी अज्ञानपूर्वक चेष्टासे भी सामनेवाला पञ्चित हो जाय अथवा वक्ता का उद्देश्य हेतु तो श्रोताओं को धोका देना न हो परन्तु उसके उपदेशका परिणाम श्रोताओंपर इस तरहका पड़े जिससे वे वास्तविक अपने हितके विषय में प्रतारित हो जाय । किन्तु यह तभी संभव हो सकता है जबकि क्त्ता या तो सदाप ई-राग द्वेष मोहसे युक्त है अथवा अज्ञानी है, यज्ञा शक्तिहीन-दुर्बल है-बाविश्यका ठीक ठीक प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं। अतएव प्रकृनमें प्राप्तका जो लक्षण आचायने बताया है वही निधिनिदोय प्रतीत होता है । क्योकि यहां दिये गये तीन विशेषणांसे इन तीनो त्रुटियों का पारण हो जाता है। पहले विशेषणसे रागद्रंप मोह आदि दोषोंका, और सर्वज्ञ विशेषण से शेष दोनों अटियों का भी निराकरण हो जाता है। कारण ति मोहका सय हो आनेके बाद तीनों धातिक कर्मों का युगपत् विनाश होते ही सर्वज्ञता प्राप्त हुआ करती है। अतएव सर्वज्ञपद अनन्त ज्ञान अनन्त दर्शन के सिवाय अनन्त वीर्यका भी बोध करा देता है। अतएव श्रेयोमार्गक यक्ता प्राप्त का यहां जो लक्षण बताया गया है वह सर्वथा उचित युक्त और उपयुक्त ही नही, पूर्णतया निर्दोष भी है इसकी निर्दोषता और आवश्यकता के विषयमें विशेष जिज्ञासुओ को मोक्ष शास्त्र तस्वार्थस्त्र महाशारत्रके मंगलपद्य-मोचमार्गस्य नेतारम्" आदिकी टीकामोंकोर नाचना. चाहिये।
ऊपर यह बात कही गई है कि यहां पर जो आप्तके तीन विशेषण दिये गये हैं उनमें उत्तरी तर के प्रति पूर्व २ कारण है; साथही यह बात भी स्पष्ट कर दी गई है कि पूर्व २ के साथ उत्तरोलरका अस्तित्व सर्वथा नियत नहीं है । क्योंकि किसी समर्थ कारण विशपके सिवाय साधारण कारणों के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि इसके होनेपर नियमसे कार्य होगाही । किंतु बोजी कारण हैं उनके विश्यमें यह अवश्य कहा जा सकता है कि इन बिना कार्यको निम्पत्ति हो नहीं सकती । उदाहरणार्थ
ऐसा कोई साधु४ जो कि आहार संज्ञासे मुक्त है, उत्तम संहनन५ से युक्त है, अबद्धायुका १-बान और असमर्थता। २-सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक । इनमें विवक्षितमंगल पद्यके एक एफ भागपर प्रत्यकर्ता ओने प्रकाश डाला है। ३-गल्यापारानन्तरमव्यपाइतांतरक्षण कार्यनिष्पत्तिः । अथवा प्रतिबन्धाः भावविशिष्ट समस्तसहकारित्वम् । ४ जा दिमम्बर जैन मुनि है वही क्षपणी घट मकता है। ४, ५-६ दिगम्बर जैन मुनि होकर भी जो प्रथम संहननसे युक्त है और किसी भी नयीन आयुकर्मफे बन्धसे रहित है वही सर्वज्ञता का सापक श्रीण मोह निर्णय हो सकता है।