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________________ चंद्रिका टीका वारहवां श्लोक और न कभी होंगे। इसका प्रमाण यह कि परका सम्बन्ध सर्वथा हटजाने पर मुक्तात्माओं में से किसी में भी आजतक फिर विकार नहीं हुा । और न हो ही सकता है क्योंकि तत्वतः विचार करने पर मालुम होता है कि आत्मामें पर के साथ आत्मसाभाव करने की स्वाभाविक योग्यताही नहीं है । अन्यथा सिद्ध पर्यायके बाद भी उनमें पन्ध होता और पुनः उनके निमित्त से उसके जन्ममरण आदि विकार भी हुए लिना न रहते। जिस तरह अशुद्ध पुद्गल स्कन्धके विभक्त होजानेपर उत्पन्न हुआ शुद्ध भी परमाणु संयोग विशेषको पाकर फिरसे स्कन्धरूप अशुद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेता है वैसा आत्मा में नहीं पाया जाता। आत्मा शुद्ध होजानेपर फिर अशुद्ध नहीं हुआ करता। प्रश्न हो सकता है कि संसार पर्याय होनेमें श्रात्मा यदि कारण नही है तो केवल पुगलमें भी वह क्यों नहीं पाई जाती ? क्या संसार पर्याय केवल पुद्गल की है ? उत्तर स्पष्ट है कि संसार पर्याय न शुद्ध पुद्गल की ही होती है और न शुद्ध आत्मा की ही । किंतु अशुद्ध द्रव्यकीही वह पर्याय है। किंतु देखना यह है कि इस अशुद्धि में मुख्य कारण कौन है। संसार पर्याय जन्धरूप है । बन्ध एक द्रव्य में नहीं हया करता तथा बन्ध का कारण भी स्निग्ध स्वत्व है जो कि पुद्रगल में ही पाया जाता है । आत्माको पुद्गल के सम्बन्ध के कारण भूत कहा और माना है किंतु यह कथन उपचारित है। प्रयोजन और निमितवश उपचार की प्रवृत्ति हुश्रा करती है । वास्तवमें आत्मा अमूर्त है । अतएव वन्धमें पुद्गलके सिवाय दूसरा द्रव्य जो कारण है वह शुद्ध श्रान्मा नहीं कितु पुद्रलसम्बद्ध जीवात्मा है । यही कारण है कि पुद्गलका सम्बन्ध सर्वथा छूट जानेपर पुनः उसका बन्ध नहीं होता। शुद्ध आत्मा का न तो पुल के साथ ही बन्ध होता है और न अन्य शुद्ध अशुद्ध आत्मा अथवा धर्मादिक द्रव्यों में से किसी के भी साथ | पुद्गलका पुद्रल के साथ चाहे वह शुद्ध हो अथवा अशुद्ध बन्ध हो सकता है। इसके सिवाय अन्य किसी भी द्रव्यके साथ उसका बन्ध नहीं होता। यदि अन्य द्रव्यकै साथ बन्ध होता है या हो सकता है तो केवल पुलसम्बद्ध जीवात्मा के ही साथ । इस तरह अन्य व्यतिरेक से विचार करने पर मालुम होता है किबन्ध में मुख्य कारण यदि कोई है तो स्निग्धरूक्षत्त्व विशिष्ट पुद्गल द्रव्य ही है। किन्तु गौर नया उससे बर्दू होने के कारण जीव भी उसका कारण कहा जाता है। जीवकी यह रन्ध पर्याय सामान्यतया अनादि है । अनादि कालसे यह जीव कर्मों से बन्ध होते रहने के कारण अशुद्ध बना हुआ है। यह जीवकी अशुद्धि पुद्रलकृत हैं । और वही नवीन २ चन्ध में कारख पडती रहती है। इस तरह यद्यपि परस्पर में एक दूसरे के प्रति विपरिणाम में निमिच बनते आ रहे हैं फिर मी यह स्पष्ट हो जाता है कि इस सन्तति के चलने में मुख्य कारण यदि कोई है तो पुद्रल है न कि आस्मा | वह तो कर्मके वश में पडकर उसके अनुसार चाहे जैसा नाचता है। वह यदि पुण्य पयाय का स्वांग भी रखता है तो स्वाधीनता से नही, कर्मपरवश होकर ही वैसा करता है। उसे यदि अभीष्ट भोगोपभोग की सामग्री भी प्राप्त होती है तो वह भी कुछ परिगणित दयालु पुण्य कर्मों के कृपाकटाक्ष पर ही संभव है।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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