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________________ ४१२ रत्नकरण्ड श्रावकाचार तथा सीन कल्याणक वाले सभी तीर्थकरों का अन्तर किया जा सकता है । परन्तु यक्ष बात सुनिश्चित है कि सम्यग्दृष्टि जीच इस तरह के किसी भी पदकी वास्तव में आकांक्षा नहीं रखता उसका अन्तिम लक्ष्य-साध्य पद तो अपना शुद्ध शिवस्वरूप ही है। इर्श, यह ठीक है कि जब तक उसकी शिवस्वरूप प्राप्त नहीं होता तबतक उसको संसार में इस तरह के पद प्राप्त हुआ करते हैं। फिर भी यह नियम नहीं है कि इन पड़ोको प्राप्त करें ही अथवा तीनों ही पदोंको प्राप्त करे। इन पदों को बिना कि भी केवल सज्जातित्व सद्गृहस्थता और परित्राज्यको ही प्राप्त करके निर्वाणको सिद्ध कर सकता है। इन पदोंमेंसे किसी भी एक पदको पाकर भी मोक्षको जा सकता है। तथा तीनों पदोंकी यद्वा तीनों पदोंसे अतिरिक्त किसी और भी पदक साथ धारण करके उनको भोगकर अन्त में जिसमें कि ये पद अत्युत्तम एवं महान् माने जाते हैं उस संसारका ही अनन्त कालके लिये परित्याग कर ध्रुव अचल अनुपम शास्वत शिव स्वरूप सिद्धावस्थाको सिद्ध कर सकता है। जैसे कि सोलहवें सत्रहवें और अठारहवें तीथकर श्री १००८ भगवान शांतिनाथ कुन्थुनाथ अरनाथन किया । इस अध्याय अन्तमें हम उन्हीं तीनों परमात्मायोंका मङ्गलरूप स्मरण करते हैं जिन्होंने कि इन्द्र-अहमिन्द्र पदको और उसके बाद एक साथ धर्म अर्थ काम पुरुषार्थ के प्रतीकरूप तीर्थकर चक्रवर्ती और कामदेव के पदों को भोग कर एकसाथ ही सबका परित्याग करने में अपने परमोत्कृष्ट पुरुषार्थ - भोचपुरुषार्थको सिद्ध करके शिवस्वरूप प्राप्त किया और जोकि संसार में रत्नत्रय१ के नाम से प्रसिद्ध हैं । शान्तिः शान्तिकरः प्रशान्तवदनः सम्भ्रान्तिहारी जिलो, यः संतापनिहृदने शशिसभो ध्यान्वापनोदी महान् । लब्ध्वा पुरुष कलत्रयमनुप शुक्ला यथेष्ट्रं च ताम्, ऐश्वये परमे निसर्गजनितं तस्थौ निजे चिन्मये ||१| षट्खण्डां वसुधां प्रसाध्य सहमा सङ्गत्नसारामलम्, चक्रेणाथ सुदर्शनेन कृतवानाज्ञाभृतो भूभृतः । रामाः पण्यचताः सहस्रगुणिताः सौगुण्यमूर्ती सतीः, योऽनङ्गोऽ रमयनिरन्तर रतिः सद्विक्रियो भोगवान् ||२|| सेषः पोडशभो जिनेन्द्र उदितो जीयाज्जगत्पावनः, इच्पाकुप्रथितान्वयेन्दुर मलज्योतिः सदोद्योतवान् । साराम्बुविपारगो भुवि नृणामुत्तारकः पोतचत्, श्रेयो मार्गनिरूपणामृतनिपेकीज्जीवितप्राणभृत ॥३॥ १-- तीनों तीर्थकरों की संयुक्त मूर्तियों को रत्नत्रयमूर्ति के नाम से कहने की प्रथा है, जैसे सोलपुर में रत्नभयका मन्दिर प्रसिद्ध है ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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