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________________ warananmir -an पद्रिका टीका उनतालीसा श्लोक st सुनिश्चितार्थाः-सुनिश्वितः अथों यैस्ते । इसका मतलब यह है कि सु= मुटु = सम्पक विधिपूर्वक = केरलद्विगोरन्यतरसमीपे . निश्चितः = अथारित:= तीर्थस्त्रभावनानुसारेण र कर्तव्यतया दृढीकृतः अर्थोऽभिधेयरूपेण प्रयोजनीभूतत्वेन च श्रेयोमार्गरूपस्तीर्थों येस्ते । जिन्होंने सम्यक्त्वके साहचर्य से विधिपूर्वक-कंवलो अथवा श्रुतकेवली पादमूल में दीर्थकृत्त्व भावना द्वारा अथवा अपाय-विचयर नामक धर्मध्यानके द्वारा "मैं वास्तविक श्रेयोमार्गका बोध कराकर उद्धार करके ही रहूंगा" इस तरहकी तीर्थप्रणयनकी सरागभावनासं४ तीर्थकर नामकर्मका बन्ध कर लिया है। वे ही इस सर्वोत्कृष्ट ग्राम्युदायिक पदको प्राप्त किया करते हैं। खूपचक्रधरा:--पचक्र--धर्मचक्रं धरन्ति इति सूपचक्रधराः । तीर्थकर भगवान्के निकट चारों दिशाओं में चार धर्मचक्र नामक विशिष्ट सातिशय उपकरण रहा करते हैं जो उनके धर्माधिपतित्वक सूचक है । इसीकी अपेक्षासे कहा गया है कि वे धर्मचक्रके धारक हुमा करते हैं। यह पद उस योगीन्द्रको ही प्राप्त हुआ करता है जो कि सब तरहके अस्त्र-शस्त्र भोर दिव्यास्त्रोंका परित्याग करके प्रशान्त परिणामोंसे जिनेन्द्र भगवान्का आराधन किया करता है। धर्मचक्र शब्दका दसरा अर्थ धर्मसमूह भी हो सकता है । तदनुसार इसका अर्थ होगा कि वे धर्मसमुह--धर्मके जितने भेद अथवा प्रकार हैं उन सभीके धारक हुमा करते हैं। क्योंकि वे धर्ममय हैं, सभी धर्म उस अवस्थामें निष्पन्न एवं पर्यवसन्न हो जाया करते हैं। भवन्ति—यह क्रियापद है। जो इस पातको बताता है कि इस तरहके समर्थ कारणके मिलने पर इस पदकी प्राप्ति होती ही रहती है । ढाई द्वीपमें जितनी कर्मभूमिगां हैं उन सभीमें सीथंकरोंकी उत्पति नियत है । और वह अनादिसे है तथा अनन्त काल तक होती ही रहेगी। लोकशरण्या:-लोकानां शरणे साधवः । सभी शरणागत जीवोंके हितका साधन करने वाले हैं। इसका श्राशय यह नहीं है कि जो उनके निकट पहुँचकर उनकी सेवा करे वही उनसे हित अथवा उसके साधनको प्राप्त कर सके; अन्य नहीं | मतलब यह है कि जो उनके उपदिष्ट मार्गको स्वीकार करता है यह अवश्य ही उनके समान अनन्त कल्याणको प्राप्त किया करता है। यद्यपि उनके निमिनसे अपनी-अपनी योग्यतानुसार अन्य भी सभी प्रासो हितको ५-तित्थयरबन्धपारम्भया णरा केवलिदुगन्वे ! ६३ ॥ क० का। २-आदिपुराण पर्व ३८ गान्वय क्रियाओंमेंसे क्रिया नम्बर २६ । ३-देखो अनगारधर्मामृत अ० १ श्लोक नम्बर २ और उसकी टीका। ४-कपाय सहित होने पर ही वन्धका कारण हुमा करता है। शुद्ध गीतराग सम्यक्त्व बन्धका नहीं संबर निर्जरा एवम् मोराका ही कारण है। ५- तशान मुदा चक्री धर्मचकचतुष्टयम । यतेंद्रबिधृतं मूर्जा नविम्बानुकारि यत् ॥ ११०॥ ६-स्यत्क्वालाव्याशस्त्राणि प्राक्तनानि प्रशांतिभाक् । जिनमाराप्य योनीद्रो धर्भपक्राधिपो भनेर १७५।। भा०पू०प० २६॥ आदि० ५०३ ॥
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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