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________________ रत्नकरावकाचार प्राप्त किया करते हैं फिर भी प्रकतमें जो अभीष्ट एवं विवक्षित है उस अनन्त कल्याणका लाभ उन जीवोंको तो अवश्य ही प्राप्त होता है जो कि उनके उपदिष्ट धर्मको साचात् समवसरणम उपस्थित होकर शरण ग्रहण करके अपनेको धर्ममय बना लेते हैं। कालिपरणत धम्म सरणं पन्धज्जामि। तात्पर्य-यह कि सम्यग्दर्शनके निमित्तसे पास होनेवाले प्राभ्युदपिक पदोंमें यह मन्तिम और सर्वोत्कृष्ट पुण्यफल' है जिसकोकि तीर्थकरका पद कहते हैं। इस कारिकाके द्वारा इस पद की प्राप्तिमें सम्यग्दर्शन सिवाय भी जो विशिष्ट कारण है-उसका भी निर्देश करते हुए पदकी असाधारण महिमा तथा उस पदके द्वारा पुनः प्रवृन होने वाली महामहिम परम्पराका भी सष्टीकरण करके बतलाया गया है कि सम्भग्दर्शनके निमिचसे यह जीव निर्वाण प्राप्तिसे पूर्व किन किन असाधारण सातिशय पुण्यफलोंको प्राप्त किया करता है और वे किस तरह और कतिक स्वयं उस जीवके तथा अन्य जीवों के भी उद्धारमें समर्थ हुआ करते है। यों तो पुण्य कर्म प्रकृतियां ६८ है परन्तु उनमें तीन ही प्रकृतियां ऐसी है जिनका कि बन्ध सम्गकन्वकै साहचर्यके विना नहीं हुआ करता । इनमें पाहारक और आहारक आहोपाल नाम कर्मोंका पन्थ सातवे गुणस्थान में हुआ करता है। इनके उदयसे स्वयं उस जीवको जैसा कि आगममें बताया गया है कदाचित् लाभ मिल सकता है। किन्तु एक तीथकर नाम कर्म ही ऐसा है जिससे कि स्वयं उस जीवको तथा अन्य सभी प्राणियोंको नियमसे सुख शांति तमा ऐहिक अभ्युदयों एवं प्रामुत्रिक हितका लाभ शीघसे शीघ्र तथा अधिकसे अधिक प्रमाणमें होकर ही रहा करता है। इस कर्मका बन्ध चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरणके छठे भागतक और उदय तेरहवेर गुणस्थानमें हुआ करता है। तीर्थकर कर्मका वन्य "दृष्टया सुनिश्चितार्थाः" इस कथनके अनुसार दर्शनविशुद्धि मादि भावनामों के द्वारा हुआ करता है। तीनों ही प्रकारके सम्यग्दर्शनों में से किसी भी सम्यग्दर्शनसे युक्त कर्मभूनिका कोई भी उधम पुरुष यदि चतुर्थादि अष्टम गुणस्थानवी है और उसको केलिदिकका सानिध्य प्राप्त है तो आवश्यक परिणामों के होने पर इस कर्मके पंचको प्राप्त हो सकता है। उस समय जो अपायविचय नामक धर्मध्यानके रूपमें तीर्थकत्व भावनाके मराग परिणाम विशेष हुमा करते हैं वे ही इसके बन्धमें निदान १-पुण्यकर्मों में तीर्थकर नाम कर्म ही सर्वोत्कृष्ट है। २–कों की कुल १४८ प्रकृति से पांतिकमों की ४७ और अघातियोंकी ५३ घटाने सभा पांदिक २० को पुख्यमें भी सम्मिलित करनेसे पुरम कम ६८ हो जाते हैं। ३-सम्मेव सिस्थधो, आहारदुग पमादरहितेसु ॥ १२॥क० का० ४-याहारन्तु पम, - २६१ ।। क० का० | तथा जी० का गा० नम्बर २३५ से २३८ । ५-फर्म को० मा नम्बर २६१।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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