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________________ १४.० 1 पासका अपना भी स्वरूप दिखाई नहीं पडता । वास्तवमें अपने विषय में या तो अव्यवसित या शंकित अथवा विपर्यस्त रहा करता है । साराही जगत् निबिड अन्धकार के समान इन तीनों ही अज्ञानोंसे व्याप्त हैं, जिनके कि कारण अपना स्वरूप या हित दिखाई नहीं पडता ! अपाकृत्य--गह एक क्रियापद है । व्याकरण के अनुसार वाक्यमें यह मुख्य क्रियापद नहीं हैं । मुख्य क्रियाके पूर्व होनेवाली या की जानेवाली अथवा पाई जानेवाली क्रियाका यह पोष कराता है। मुख्य क्रिया तो जिनशासन के माहात्म्यको प्रकाशित करना है। किंतु प्रकृत कृदन्त क्रियापद का मुख्यतया आशय यह है कि जबतक जीवोंक अन्तरंग में अज्ञान तिमिर व्याप्त है तवतक उनके भीतर जिनशासन के माहात्म्य का प्रकाश उद्भूत नही हो सकता । जिस तरह मलिन वस्त्रपर कोई भी रंग मच्छीतरह नहीं चढ सकता । अथवा काले रंगपर दूसरा रंग असर नहीं करता, उसी प्रकार जनतक आत्मा मिथ्याज्ञानरूपी तिमिर से मलिन या काली हो रही तक उसपर सदुपदेशका कोई भी परिणाम नहीं हुआ करता, तीन प्रकारकी मानी गई परिणतियोंमें क्रम भी यही है कि पाप पर किया गुम परिणति और पुण्य परिवति के छूटे बिना वीतराग - शुद्ध परिणति नहीं हुआ करती । थतः जिसतरह रात्रीके अभावपूर्वकही प्रातःकाल हुआ करता है उसीप्रकार अज्ञानके विनष्ट होनेपरही जिनशासन के माहात्म्यका प्रकाश हुआ करता है । यथायथम् — इस शब्दका आशय इतना ही है कि जिस उपाय से भी शक्य हो उसी उपाय से । किंतु इस उपाय से यह बल ग्रहण नहीं करना चाहिये कि प्रभावना के लिये अनुचित उपायका भी आश्रय लिया जा सकता है । अथवा यहांपर आचार्य यद्वा तद्वा- उचित अनुचित किसी भी तरह से प्रभावना करनेका उपदेश देरहे हैं । किंतु यहां आशय उचित उपाय काही आश्रय लेनेका हैं। हां, प्रभावना के लिये जो उचितरूप अनेक उपाय संभव है उनमेंखे प्रसंगानुसार जो भी उपाय आवश्यक हो उसका आश्रय लेना चाहिये यही ग्रंथकारका आशय है। यहां पर यह बात भी ध्यान में रहनी चाहिये कि उचित प्रवृचिके विरोध में होनेवाले कार्य आक्रमण - खंडन आदिके विरुद्ध प्रवृत्तिको अनुचित नहीं माना या कहा जा सकता । क्यों कि जिस तरह निषेध का निषेध विधि होता है उसीप्रकार अनुचित आक्रमण या विरोधकी निवृति अथवा परिहार के लिये जो भी उपाय काम में लिया जाता है वह भी उचित ही माना जा सकता है। I प्रभावना अंग में प्रसिद्ध हुए जिन महान् व्यक्तियोंका नामोल्लेख किया जाता है उनके इतिवन का अध्ययन करनेपर मालुम होता है कि उन्होंने किसी के ऊपर अन्यायपूर्ण आक्रमण .. करके धर्म की प्रभावना नहीं की। जिन्होंने भी प्रभावना की है उन्होंने प्राय: करके अपने सिद्धान्त १- हितमेष न वेति कश्चन, भजतेऽन्यः खलु तत्र संशयम् । विपरीतरुचिः परो जगत् - त्रिभिरशानतमोमिरासम् ॥ ० ० २--बधा अनविक्रम्य इति यथायमम् ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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