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________________ चादका टीका अठारह श्लोक या मान्य धर्म की महत्ता, निबांधसत्यता, और वास्तविक कल्याणकारिताका बोध कराकर विचार परिवर्तन के द्वारा ही प्रभावना की है। हां ! सदाचित आवश्यकता पड़ने पर दूसरों के द्वारा होने पाले आक्रमण के निवारण में जिन्होने अपनी शक्ति लगाकर धर्मको प्रभावना की है वह वास्तव में देखाजाय तो आक्रममा नहीं, बल्कि अाक्रमण से अपनी रक्षाका प्रकार मात्र कहा जा आचार्य बनायथं शद को देहलोदीपक न्याय से अज्ञान के अपाकरणऔर जिनशासन की महत्ता के प्रकाशन के मध्यमें रखकर इस बात को स्पष्ट करदिया है कि इन दोनों ही कार्यों के लिये कबर किनर उपायों का अवलम्बन लिया जाय इसलिये किन्ही खास उपायों का ही नाम अथवा उनकी संख्या आदि निश्चित नहीं की जा सकती । इसका निश्चय तो प्रसङ्ग के अनुसार किया जा सकता है । फिर भी ग्रन्थान्तरों में प्राचार्योंने उन उपायोंका नामोल्लेख कर दिग्दर्शन भी करादिया है । यथा-अशियित दान तप जिनपूजा और विद्या आदि । यद्यपि सामान्यतया गृहस्थों और मुनियों में प्रभावना के लिये पाये जा सकने वाले प्रायः सभी उपायोंका इन चार उपायोंमें समावेश हो जाता है फिर भी विशेष दृष्टि से विचार करनेपर इसके सिवाय और भी कुछ ऐसी प्रवृत्तियां हैं जो कि जैन धमकी प्रभावना का साक्षात् अथवा परम्परा कारण हो जाती हैं हो सकती हैं, अथवा कही जा सकती हैं। उदाहरणार्थ---न्याय्यवृत्ति, अहिंसकता, दयालुता, परोपकारता, सत्यनिष्ठा, पवित्रता सदाचार, विवेक, कृतज्ञता और आर्यव्यवहार आदि। जैन धर्मके अनुयायी व्यक्ति यदि अधिक से अधिक प्रमाण में और अधिक से अधिक संख्या में इन गुणों का पालन करनेवाले हों तो निःसंदेह वह अजन समाज पर जैनधर्मके प्रभावका कारण बन जा सकता है । हिंसा चोरी बलात्कार राजद्रोह विवागधात जैसे भयंकर पाप करनेवाले व्यक्तियोंकी संख्या आज जैनधर्मके अनुयापियोंमें नहीं है अथवा नहीं के बराबर है यह अवश्यही जैनसमाज के लिये गौरवकी वस्तु है। इसी तरह जैन धर्मके अनुयायियों के विधिरूप कार्योंमें भी यदि अन्यधर्मी लोगोंकी अपेक्षा पदि. अता सत्यता हितपिता आदि अधिक एवं असाधारणरूपसे पाई जाती है तो कहा जा सकता है कि वह जैन धर्मके संस्कारों की प्रभावनाका ही परिणाम या फल है। जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः।-यात्महितके वास्तविक साधनका उपदेश ही जिनशासन है उसकी असाधारण उत्कृष्ट पवित्र हितसाथनताका रहस्य सर्वोपरि महान् है । इसीका नाम तीर्थ है। प्रासीमात्रका वास्तविक हित यदि हो सकता है तो इसके अनुसार चलनेपर ही हो सकता है। संसारी प्राणी किसी गति योनि या अवस्थामें क्यों न हो और क्यों न रहे वह तबतक दुःखी ही है वह दुःखोंसे उन्मुक्त नहीं हो सकता जबतक कि वह जिनशासनसे यहित बना हुआ है। १-आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमव । दान तपो जिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ।। पु. मिल । चैत्याचैत्यालयनिस्तपोभिर्विविधात्मकः । पूजामहायजायैश्च न्मार्गप्रभावमम् ।। परा०
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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