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________________ १४५ चर जिन्होंने अज्ञान मोह और दौर्बल्यको निर्मूल नष्ट कर अपने पूर्ण ज्ञान सुख शान्ति तथा अनन्त बलको प्राप्त करके जो निश्चित निर्वाध निराकुल स्वाधीन परिवर्त्य अनन्त सुखका स्वरूप एव उसकी सिद्धिका मार्ग बताया है, वे और उनका वह निर्दिष्ट मार्ग ही सर्वथा सत्य है और उपादेव है । उसीसे संसार और तापत्रय सदा के लिये छूट सकते हैं। इस तरहकी ज्ञानमें प्रतीति की ताका श्रा जाना ही जिसको कि आस्तिक्य आदि शब्दोंसे भी कहा जाता है, जिनशासन के माहात्म्यका प्रकाश होना है। जिसके कि होनेपर उस मार्ग और उसके वक्त के प्रति उसके हृदयमें भक्ति तुष्टि प्रमोद रुचि आदि का भाव जागृत होता और प्रथम संवेग अनुकम्पा आदि गुरु प्रकट होजाया करते हैं। क्योंकि आत्महितके सच्चे विरोधी या बाधक अपने ही भीतर चिर कालसे--अनादिसं साम्राज्य जमाकर बैठे हुए और उस आत्माको गुलाम- दास बनाकर उसपर शासन करनेवालों में मोह राजा अज्ञान मन्त्री क्षोभ सेनापति और दौर्बल्य गृहमन्त्रीका कामकरनेवाले ही मुख्य है। इनको निर्मूल नष्ट करके उनपर विजय प्राप्त करनेवालेकी ही "जिन" यह अन्वर्थ संज्ञा हैं । किसी व्यक्तिविशेषका यह वैसा नाम नहीं हैं जैसा कि लोक में केवल निक्षेपरूप से व्यवहार चलान के लिये निर्धक रतिया जाता है। यही कारण है कि जैनधर्म किसी एक व्यक्तिके नामसे सम्बद्ध तथा उसीके उपदेशपर निर्भर नहीं है । जिस मार्गपर चलकर उन्होंने त्रैलोक्यविजयी जिन व्यवस्था प्राप्त की हैं उनके द्वारा बताये हुए उसी उपायका नाम जिनशासन हैं। उसका माहात्म्य लोकोत्तर असाधारण है। लौकिक किसी भी कार्यकी सिद्धि पर पदार्थों की अपेक्षा प्रधान हुआ करती हैं, क्योंकि वे स्वाधीन नहीं हैं तथा प्रयत्न करनेपर भी उनकी सिद्धि निश्चित नहीं है और वे शुद्ध नहीं रहा करते उनका परिपाक भी अभीष्ट ही नहीं हुआ करता । फिर वे अस्थायी तो रहा ही करते हैं। किंतु यह जिनेन्द्र भगवान्‌का शासन इनसे सर्वथा विपरीत ही फलको उत्पन्न करता है। इसका फल नियत है, स्थायी है, शुद्ध है, अभीष्ट है, निरपेक्ष है, और स्वतंत्र हैं। सबसे बड़ी विशेषता इसमें यह हैं कि किसी भी जीवको एक वारमी और कमसे कम समय केलिये भी - अन्त हूर्तकेलिये भी यदि वह हस्तगत - प्राप्त होजाय तो फिर वीन लोकमें और कोई भी शक्ति ऐसी नहीं है जो उस वास्तव में अभीष्ट विजय से रोक सके। यही कारण है कि इस उपायको प्राप्त करनेवाले आत्मा महान् हुआ करते हैं और उनकी वह असाधारण शक्तिकी योग्यता ही जिनशासनका माहात्म्य है । इस शांत के आविर्भावको ही सम्यक्त्व कहते हैं। विजयसे मतलव कर्मों की शक्तिके पराभूत करनेसे हैं। क्योंकि इस शक्तिके आविर्भूत होजानेपर कर्मोंमें जो जीवको पंचविधिसंसरण कराने की योग्यता है वह उसी समय नष्ट होजाती है। यही उसकी सर्व प्रथम और महान् लाकोचर विजय है । प्रकाश - शब्द से व्याप उद्योत या रूपगुखकी पर्याय नहीं लेनी चाहिये जो कि पुलकी
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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