SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५३ चंद्रिका टीका अठारहवां लीक पर्याय हैं। यहां तो पहल से सर्वथा भिन्न श्रात्माकी शक्तिकें प्रकट होनेको ही प्रकाशशब्द से मना चाहिये । श्रात्माकी इस शक्तिके प्रकट होनेपर उसके प्रत्येक गुण अपने वास्तविक में जाते है । यद्यपि आत्माको और उसके उन अनन्तगुणोंको अपने पूर्ण विशुद्धरूपमें आनं केलिये कुछ समयकी अपेक्षा रहती है जिसका कि सामान्यतया प्रमाण अन्तर्मुहूर्त से लेकर अर्थ पुलपरिवर्तनतक बताया है कि भी यह नियक्ति के प्रकट होजाने पर इस अवधि के भीतर जीवात्मा बहिरात्म अवस्थाको छोडकर और यन्तरात्म अवस्थाको शकर परमात्म अवस्थाको प्राप्त अवश्य करलेता है। यह माहात्म्य जिनशासन में ही है, अन्य किसी भी नहीं हैं। यही कारण है कि उसको हमने लोकोत्तर कहा है। जिसका स्वरूप लोकोst और फल लोकोत्तर फिर उसके माहात्म्यको — लोकमें पाये जानेवाले अन्य किसी भी पदार्थसे जो संभव नहीं उस असाधारण अतिशयको लोकोत्तर क्यों न माना जाय । प्रभावना -- यद्यपि यह शब्द व पूर्वक भ्रू धातुसे ही बना २ हैं किंतु वह दो तरह से वन हैं - चुरादिगणको विच् प्रत्यय होकर अथवा प्रयोजक अर्थ में शिच् प्रत्यय होकर ! दोनों में विशेषता है वह प्रयोज्य प्रयोजक की है। सकता तात्पर्य यह है कि प्रभावना के विषय स्व और पर दोनों ही हो सकते हैं। क्योंकि जिसतरह सम्यग्दर्शनादि गुणोंको अपनी आत्मा में प्रकाशित किया जाता है या किया जा सकता है उसी तरह परमें भी। जब अपने ही भीतर उद्भूत होनेवाले या किये जानेवाले सम्यग्दर्शन की विवक्षा हो वहां प्रयोज्य की अपेक्षा मुरूष होती हैं। और जब दूसरी आत्मामें उसके प्रका शित करने के लिए किये गये प्रयत्न की विवक्षा हो तो वहां प्रयोजकताकी मुख्यता होगी । सम्पदर्शन के निसर्गज और अधिगम में से प्रथम भेदमें देशनाके निमित्त होते हुए भी उस की गणना मानी जाती है। क्योंकि अल्पप्रयन की अवस्था में उस प्रयत्नको मुख्य नहीं माना जाता | परन्तु वही देशना का प्रयत्न यदि बार बार और अधिकता के साथ किया जाय और उससे सम्यग्दर्शन प्रकट हो तो वहां प्रयत्न की मुख्यता मानी जाती है। उसको अधिगमज सम्यदर्शन करते हैं। यह विवक्षा की बात है। क्योंकि सामान्यतया दोनोंही सम्यग्दर्शनोंमें देशना निमित्च हुआ करती है। इसीतरह विषय अथवा अधिकरण के सम्बन्ध में समझना चाहिये । जब अपने ही भीतर स्वयं सम्यग्दर्शन के प्रकाशित करनेकी विवक्षा हो तो वहां प्रयोज्य धर्मकी मुरुपता होगी। और जब दूसरे व्यक्ति की आत्मा में उसके उद्भूत करने के लिए किए गये प्रयत्न की अपेक्षा हो तो वहां प्रयोजक अर्थको मुल्यता होगी। यही कारण कि उपगूहनादिकी तरह १–“शम-वन्ध-साम्यस्थौल्य संस्थान -मेव--तमका यात पोद्योतवन्तश्च" तः सू० २---प्र-भु-नि--अन-टाप् । ३ – निसर्गो वापि तदाम कारद्वयम् । सम्यक्त्वा पुमान् भस्मादपानापायाससः । इत्यादि बरा० ० २९२ । 20 -
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy