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________________ बद्रिका टीका अठारहवां श्लोक १४ कि ग्रंथकार का आशय दोनोंही तरफ है । अर्थात् स्व और पर दोनों में ही अज्ञानको दूर करने और जिन शासन के महत्व को स्थापित करने का नाम प्रभावना है ऐसा इसका आशय है। किंतु स्वयं जिसके भीतर सम्यग्दर्शन प्रकट होगया है यह जैसी कुछ परमें प्रभावमा कर सकता है वैसी अन्य नहीं । जो स्वयं ही अज्ञान से व्याप्त है तथा जिन शासन के माहात्म्पके वास्तविक प्रकाश से रहित है, वह दूसरेको उम अज्ञानान्धकारसे रहित और उक्त प्रालीक से प्रकाशित किस तरह कर सकता है ? नहीं कर सकना । इस बात पर विचार करनेसे मालुम होता है कि वास्तव में सम्यग्दृष्टि जीव ही परमें प्रभावना करने का अधिकारी है। दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि यदि दूसरों में धर्मके प्रभावको उत्पम करनेकी रीति नीति या कृतिको कभी भी किसीभी तरह यदि मुख्य न माना जायगा तो श्रेयोमार्गकी परम्परा किस तरह चालू रह सकती है। वह तो अवश्यही एक न एक दिन समाप्त हो जायगी। अरि यह ठीक है कि सर्वज्ञ भगवानके कथनानुसार मोक्षमार्गका संसारमै निरन्धय विनाश कभी नहीं हो सकता । वह अनाद्यनन्त है । अनादिकालसे है। और अनन्त कालतक रहेगा। किंतु यह तो द्रव्याधिक नयसे उसके एक अन्वयी स्वरूपका निदर्शन मात्र है। यह वैयक्तिक मिदि के कार्य कारणभाव को नहीं बताता । सर्वज्ञके ज्ञान और वैयक्तिक सिद्धि प्रादि में शानशेय सम्बन्ध तो कहा जा सकता है परन्तु कार्यकारण सम्बन्ध नहीं माना या कहा जा सकता। और प्रत्येक कार्य की सिद्धि अन्तरंग बहिरंग कारणापेक्ष है । किसीभी कार्य की निष्पति उसकी अन्तरंग योग्यता और बाह्य निमिसके कारणोंपर निर्भर है। अतएव प्रत्येक सम्यग्दृष्टिका यह भी मुख्य कर्तव्य हो जाता है कि वह मोक्षमार्गक असाधारण अंग सम्यग्दर्शन की संतति के प्रवाह को अव्युछिन मनाये रखने के लिए दूसरी आत्माओंमें से अज्ञानान्धकारको दूर कर जिनशासन-रलत्रय रूप गुणों को प्रकाशित करे और करता रहे । यद्यपि इस विषय में सम्यग्दृष्टि की प्रवृत्ति स्वतः ही हुआ करती है। फिर भी कर्तव्यो आशय को व्यक्त करना इस कारिकाका प्रयोजन है। शब्दोंका सामान्य-विशेष अर्थ अज्ञान शब्दसे ज्ञानका सर्वथा अभाव या अपूर्ण अर्थ न लेकर असमीचीन या मिथ्याज्ञान अथ ग्रहण करना चाहिये । यही कारण है कि उसको तिमिर का रूप देकर बताया गया है। दूसरी बात यह है कि ज्ञानका सर्वथा अभाव होता नहीं । यदि ऐसा हो तो सभी गुणों और द्रव्यों का प्रभाव का प्रसंग आ सकता है। तथा जश्तक केवलज्ञान नहीं होता तबतक प्रत्येक व्यक्तिका ज्ञान छद्मस्थ होने के कारण अपूर्व ही रहा करता है। अतपय जो ज्ञान मोहपरिणाम में प्राच्छन्न है अथवा प्रतिभासमान विषय के स्वरूप से वास्तवमें व्यभिचरित है वही मान 'सान शब्दसे कहा जाता है । मतलब यह कि यहांपर प्रज्ञान से अभिप्राय मिध्याज्ञान का ही लेना चाहिये। जिसतरह अन्धकार के सर्वत्र व्याप्त हो जानेपर पास का भी पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता उसीतरह जबतक अज्ञान मिध्याज्ञान जीवोंके अन्तरंग में व्याप्त है सनतक उनको -स्वावभासनाशक्तस्य परावभासकरवायोगात ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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