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________________ vur . - N WA-. - .-. . - - पन्द्रिका टोका ऐतीसा श्याक अपकष एवं विवक्षित पुण्यप्रकृतियोंकी स्थिति और अनभागतिके उत्कर्षका कारण भागममें सम्पग्दर्शनको ही बताया है। फिर यह किस सरह कहा जासकता है कि सम्यक्त्व बन्धका कारण नहीं है। किन्तु इसका उत्तर परले दिया जा चुका है कि जापर उसको बन्धका कारण पाया गया है वहां उसका श्राशय सम्परत्वराहकारी उन भानाम है जो कि अशुभ क.पायोंकी मन्दता विशेष तथा शुभकपाय विशेषरूप उदयसे होनेवाले हैं। क्योंकि सम्पदर्शनके होनेपर बन्धक कारणों में मे मिथ्यात्व के बट जानेपर भी जब तक शेष थपिरति आदि पायजन्य भाव अथवा कोई मी सकपाच परिणति वर्ना हुई है तबतक उनका कार्य भी यथायोग्य होता ही रहता है। ज्यों ज्यों जीचके पुरुषार्थ के फलस्वरूप के कारणरूप भार छूटते जाते हैं त्यो त्यों आगे आगे उन कोका बन्ध भी शूटना जाना और संवर तया मसको दिमें भी वृद्धि होती जाती है। किन्तु सिद्धान्त रूपसे यह असम्भव है, कि जो मुक्तिका कारण है वही चत्वका भी कारण हो। ___ यद्यपि यहाँ पर प्राचार्य नारक श्रादि आठ अवस्था मोका ही नाम गिनाया है फिर भी उनके महचारी कौका भी इसी से ग्रहण किया जा सकता है। अतएव सम्यक्त्वके होलापर जिन ४१ कमप्रकृतियोंकी बन्धव्यच्छित्ति भागममें बताई है, उन सभीका यहांपर ग्रहण कर लेना चाहिये और इन्ही पाठ में उन शेप सभीका अन्तर्भाव समझ लेना चाहिये । सम्पग्दर्शनके होने पर १६ ओर २५ इस तरह मिलाकर कुल ११ प्रतियोंका बन्ध छूट जाता है | उनमें से मिथ्यात्वक उदय तक ही जिनका बन्ध होता है, उसके आने द्वितीयादि गुण थानोंमें जिनका बन्ध न होकर संवर होता है, घे १६ कर्मप्रकृतिमां ये हैं-१ मिय्पाल, २ हुंडकसस्थान, ३ नमकवेद, ४ असंशप्तामृपाटे, संहनन, ५ एकेन्द्रिय, ६ द्वीन्द्रिय, ७ श्रीन्द्रिय, = चनारन्द्रिय जाति, स्थावर नामकर्म, १० पातर, ११ मन्म, १२ अपर्याप्त, १३ साधारण, १४ नरकगति, १५ नरकगत्यानुपूर्वो, और १६ नरक आय । इसी प्रकार अनन्मानबन्धी कषायक उदयके निमिक्षसे जिनका द्वितीय गुणस्थान-सासादान तक ही बन्ध पाया जाता और उसके ऊपर संवर हो जाया करता है उन २५ प्रकृतियों के नाम इम प्रकार है-अनन्तानुसन्धी, १ क्रोध, २ मन, ३ माया, ४ लोभ, ५ स्त्यानगृद्धि, ६ निद्रानिद्रा, ७ प्रपलाप्रचला, ८ दुर्भग, ६ दुःस्वर, १० अनादेय, ११ न्यग्रोध संस्थान, १२ स्वाति सं०, १३ कातक सं० १४ वामन सं० १५ बज्रनाराच सं०, १६ नाराचसं, १७ अर्धनाराच सं०. १८ कीलक सं०, १६ अगस्त विहायोगति, २० स्त्री वेद, २१ नीचगोत्र, २२ तिर्यग्गदि २३ तिर्याम्गत्यानपूर्वी, २४ तिर्यगायु, २५ उद्योत। इन सब कि नामों को देखकर मालुम हो जा सकता है कि जो अबदायुष्क सम्पष्टि है वह नरक और तिर्यग्गतिमें तो उत्पन्न नही ही होता कदाचित् मनुष्यगतिमें जन्म धारण करे तो वह नपुंसक, स्त्री, नीच कुली, विकृत-इंडक भादि संस्थानोंसे युक्त, अन्पायु और हरित नहीं हुमा करना | जो बद्धायुष्क है वह भी यथायोग्य इन बन्धव्युज्यिा प्रकृतियों के अनुसार निकट स्थानीको प्राप्त नहीं हुआ करता ।
SR No.090398
Book TitleRatnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size15 MB
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